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जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
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वंश में हरिकेसरीदेव, कीर्तिदेव, रानी माललदेवी, सोविदेव, बोप्पदेव आदि प्रसिद्ध जिनभक्त हुए है। कर्नाटक राज्य के कुर्ग और हासन जिलों में अथवा कावेरी और हेमवती नामक नदियों के मध्य कोंगाल्वंशी सामंत राजा हुए थे। सन् ६०० ई. के लगभग गंग-राजकुमार एयरप्प ने इस वंश के प्रथम ज्ञात व्यक्ति को इस प्रदेश में अपना सामंत नियुक्त किया था। १००४ ई. में पंचम महाराय को राजराजा चोल ने “कोंगाल्व" विरूद दिया, मालबि प्रदेश दिया और अपना प्रमुख सामंत बनाया था। इसका पुत्र राजेंद्रचोल कोंगाल्व था जो परम जैन था, उसकी पत्नी रानी पोचब्बरसि भी परम जैन थी। उसने भव्य जिनालय बनवाया तथा स्वगुरू गुणसेन पण्डित की एक मूर्ति भी बनवाकर स्थापित की थी। ई. १३६१ में किसी धर्मात्मा रानी सुगणीदेवी ने मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया था। चंगाल्ववंश का अस्तित्व ग्यारहवीं से लगभग पंद्रहवीं शती तक रहा। इस वंश के राजा चंगनाड़ (मैसूर राज्य के हनसूर तालुक) के शासक थे। ये स्वयं को यादववंशी क्षत्रिय कहते थे। ये प्रारंभ में चोलों के, तदनंतर होयसलों के सामंत हुए। इसके अधिकांश राजा शैव मतानुयायी थे, किंतु कतिपय परम जैन भी थे। इस वंश का सर्वप्रसिद्ध जैन नरेश राजेंद्रचोल नन्नि चंगाल्व हुआ था। इस नरेश ने कई जैन मंदिर बनवाये थे, कईयों का पुनर्निर्माण किया था एतदर्थ दान आदि भी दिया था |५४ ___अलुपवंश के शासक तुलुवनाड़ के थे, इनका उदय १०वीं शती में हुआ था, किंतु यह प्रदेश उसके बहुत पूर्व से ही जैनधर्म का गढ़ रहता आया था। मूडबिद्रि, गेरूसप्पे, भट्टकल, कार्कल, बिलिंग, सोदे, केरेवासे, हाडुहल्लि, होन्नावर आदि उसके प्रायः सभी प्रसिद्ध नगर जैनधर्म के केंद्र थे और प्रायः पूरे मध्यकाल में भी बने रहे। भुजबल अलुपेन्द्र (१११४-५५ ई.) इस वंश का प्रसिद्ध राजा था। मलधारिदेव, माधवचन्द्र, प्रभाचंद्र आदि जैन गुरूओं को इस वंश के राजाओं से सम्मान प्राप्त हुआ था। तुलुवदेश के एक भाग का नाम बंगवाड़ि था। इसके संस्थापक बंगराजे सोमवंशी क्षत्रिय थे और प्राचीन कदम्बों की एक शाखा में से थे। गंगवाड़ि के गंगों के अनुकरण पर उन्होंने स्वयं को बंग और अपने राज्य को बंगवाड़ि नाम दिया लगता है। यह वंश प्रारंभ से अन्त पर्यंत, गंग वंश की ही भांति जैन धर्म का अनुयायी रहा। इस वंश में पुत्री बिट्ठलादेवी ने १२४० ई. से १२४४ ई. तक राज्य किया। अपने पुत्र कामिराय वीर नरसिंह को समुचित शिक्षा दीक्षा दी। माता-पत्र ने सयोग्य शासन द्वारा राज्य की सेवा की। ग्यारहवीं शताब्दी ईस्वी के मध्य के लगभग तैलंगाने में ककातीय वंश का उदय हुआ। वारंगल उसकी राजधानी थी, शीघ्र
। गया था, और १३वीं शती में अपने चरम उत्कर्ष पर था। इसी जिले के भोगपुर नगर में पूर्वी गंगनरेश अनन्तवर्मन के आश्रय में राज्य श्रेष्ठी कण्णम-नायक ने राज-राज जिनालय नाम की बसदि का निर्माण कराया था, तथा ११८७ ई. में इसकी व्यवस्था के लिए प्रभूत दान दिया था। अनंतपुर जिले के ताड़पत्री नगर के निवासी सोमदेव और कंचलादेवी के धर्मात्मा पुत्र उदयादित्य ने ११६ ई. में जैनमंदिर बनवाकर स्वगुरू को दान में दिया था। अंतिम राजा रूद्रदेव द्वितीय (१२६१-१३२१ ई) था, इसी राजा के समय में जैन कवि अप्यपार्य ने कन्नड़काव्य "जिनेंद्र-कल्याणाभ्युदय" की रचना की थी। देवगिरि के यादव नरेश के वंश के संस्थापक सुएन प्रथम था जो ६वीं शताब्दी में राष्ट्रकूट सम्राट अमोघवर्ष प्रथम के अधीन
| था और सुएन देश का जागीरदार था। अत: यह वंश सुएन-वंश के नाम से भी प्रसिद्ध था। इस वंश का भिल्लम द्वितीय, कल्याणी के चालुकय वंश के संस्थापक तैलप द्वितीय का सहायक था। उसकी छठी पीढ़ी में सुएनचंद्र ततीय (११४२ ई.) जैनधर्म का विशिष्ट पोषक था। उसने ११४२ ई. में अंजनेरी के चंद्रप्रभ जिनालय के लिए नगर की तीन दुकानें दान की थी। इसी अवसर पर साहु वत्सराज, राहु लाहड़, साहु दशरथ नामक तीन धनी व्यापारियों ने भी एक दुकान एवं एक मकान समर्पित कर दिया था। यह दान शासन कालेश्वर पण्डित के पुत्र दिवाकर पण्डित ने लिया था। रामचंद्रराय (रामदेव) १२७०-१३०६ ई. का जैन सामंत कूचिराज बेतूरप्रदेश का शासक था, वह परम धार्मिक था, उसके पिता सिंहदेव, माता मल्लाम्बिका, पत्नी शीलवान रूपवान् लक्ष्मी देवी थी। पत्नी लक्ष्मीदेवी के स्वर्गवास पर स्वगुरू पदमसेन भट्टारक के उपदेश से "लक्ष्मी जिनालय" नामक भव्य मंदिर का निर्माण किया तथा ११७१ ई. में उसकी व्यवस्था हेतु भूमि का दान भी दिया था। इसी वंश में कोटि नायक की भार्या शिरियमगौडि ने १२६६ ई. में समाधिमरण किया था। वह बड़ी गुणवान्, शीलवती, उदार और धर्मात्मा थी। उसने अनेक जिनालयों का जीर्णोद्धार कराया था। निडुगलवंशी राजाओं का राज्य १२वीं १३वीं शताब्दी में मैसूर प्रदेश के उत्तरी भाग में था। इस वंश के नरेश अपने आपको चोल महाराज, मार्तण्ड-कुलभूषण और उरैयूर पुखराधीश्वर कहते थे। इस वंश में भोगनप का पुत्र बर्मनप था, जिसकी भद्र लक्षणोंवाली रानी बावलदेवी कलिवर्म की पुत्री थी। इस वंश में गंगेयनायक की पत्नी चामा के पुत्र गंगेयन-मारेय और उनकी पत्नी बाचले भी पिता की तरह परम धर्मवान थी। इस दंपत्ति ने पार्श्वजिन बस्ति का निर्माण कराया था। इस मंदिर के लिए
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