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आठवीं से पंद्रहवीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
सत्ता समाप्त होने पर, कम से कम संपूर्ण कर्नाटक में सर्वोपरि राज्यशक्ति के स्वामी हुए। कर्नाटक के प्राचीन गंगवाड़ि राज्य की भांति ही होयसल राज्य की स्थापना का श्रेय भी एक जैनाचार्य विमलचंद्र पंडितदेव के आशीर्वाद का परिणाम है। द्वारावती (द्वारसमुद्र या दोरसमुद) का यह शक्तिशाली एवं पर्याप्त स्थायी होयसल-महाराज्य, जैन प्रतिभा की दूसरी सर्वोत्कृष्ट सष्टि थी।
कर्नाटक की पर्वतीय जाति का एक अभिजात्य सल नामक वीर युवक था। उसकी जननी गंगवंश की राजकन्या थी, तथा पितकुल में भी जैनधर्म की प्रवत्ति थी। एक बार गुरू विमलचंद्र के समीप वे एकाकी ही अध्ययन कर रहे थे, एक भयंकर शार्दूल वन में से निकलकर गुरू के ऊपर झपटा, गुरू ने मयूरपिच्छी सल की और फैक कर कहा “पोय-सल" (हे सल, इसे मार) सल ने पिच्छिका के प्रहारों से सिंह को मार गिराया। गुरूने उसपर प्रसन्न होकर आशीर्वाद दिया और उसे स्वतंत्र राज्य स्थापित करने की आज्ञा दी। तब से 'सल' 'पोयसल' कहलाने लगा जो कालांतर में "होयसल" शब्द में परिवर्तित हो गया और सल द्वारा स्थापित राज्यवंश का नाम प्रसिद्ध हुआ ।
विष्णुवर्द्धन होयसल, होयसल वंश का सर्वप्रसिद्ध नरेश है, जो भारी योद्धा, महान् विजेता एवं अत्यंत शक्तिशाली था। साथ ही वह बड़ा उदार, दानी व सर्वधर्मसहिष्णु था। उसने द्वारसमुद्र (हलेविड) को अपनी राजधानी बनाया, उस सुंदर नगर के निर्माण का श्रेय इसी नरेश को है। महाराज विष्णुवर्द्धन पोयसल की पट्टमहिषी शांतलदेवी थी। लक्ष्मी देवी आदि अन्य कई रानियाँ थी, जिसमें शांतलदेवी प्रधान एवं ज्येष्ठ होने से यह पट्टमहादेवी कहलाती थी। शांतलदेवी जिनभक्त एवं धर्मपरायण थी । ११२२ ई. में महारानी ने जिनमंदिर बनवाया। माचिकब्बे, चन्दिकब्बे, बाचिकब्बे, हरियबरसि, लक्ष्मीदेवी, लक्कलदेवी आदि इसी वंश की जिन भक्त श्राविकाएँ थी। धर्मात्मा आचलदेवी, महासती हर्यले, ईचण, सोवलदेवी, बिज्जलरानी, देवलदेवी आदि जिनभक्त श्राविकाएँ हुई थी। बारहवीं शताब्दी में गंगवंश के उत्तरवर्ती राजाओं में रक्क्सगंग द्वितीय का भतीजा और कलियंग का पुत्र बर्मदेव अधिक प्रसिद्ध हुआ। उसकी रानी गंग महादेवी भी यशस्वी महिला-रत्न थी। यह दंपत्ति प्रभाचंद्र सिद्धांतदेव के गहस्थ शिष्य थे। बम्मदेव महामण्डलेश्वर कहलाते थे। उनके चार पुत्र थे मारसिंग, सत्य (नन्निय) गंग, रक्कसगंग, और भुजबलगंग तथा पौत्र मारसिंहदेव नन्नियगंग था। बारहवीं शताब्दी में इस वंश की अनेक देदीप्यमान श्राविकाएँ हुई हैं। महारानी बाचलदेवी, सुगियब्बरसि, कनकियब्बरसि, चट्टियब्बरसि, शांतियक्के, पालियक्के, सामियब्बे, चन्दलदेवी, होचलदेवी, मांकब्बरसि, केलेयब्बरसि, चागलदेवी, विज्जलदेवी, अचलदेवी, चट्टलदेवी, विदुषी पम्पादेवी, बाचलदेवी, अलियादेवी, आदि जिनभक्त महिलाओं ने धर्म,एवं समाज को नैतिक बल दिया और सुंदर वातावरण का निर्माण किया ।५३
__ पश्चिमी दक्षिणापथ के कोंकण प्रदेश में १०वीं शती ईस्वी में कई शिलाहार (सेलार, सिलार) वंशी सामंत घरानों का उदय हुआ। ये विद्याधरवंशी क्षत्रिय थे और स्वयं को पौराणिक वीर जीमूतवाहन की सन्तति से हुआ मानते थे । इनका मूलस्थान तगरपुर (पैठन से ६५ मील दूर स्थित तेर) था। अतः ये अपने नाम के साथ तगरपूरवराधीश्वर उपाधि प्रयुक्त करते थे। रट्टराज शिलाहार, भोज प्रथम शिलाहार, गण्डरादित्य, विजयादित्य, भोज द्वितीय, शिलाहार, गोंकिरस, महासामंत निम्बदेव, सामंत कालन, चौघौरे कामगावुण्ड आदि शासक हुए थे। इसमें गोंकिरस की माता और वीर मल्लीदेव की धर्मात्मा पत्नी थी बाचलदेवी। वह इस समय की धर्मात्मा रानी थी। इसने ११२३ई. में नेमिनाथ जिनालय की स्थापना की थी।
____प्राचीन चालुक्यवंश की एक शाखा पुलिगेरे (लक्ष्मेखर) प्रदेश पर राष्ट्रकूटों के सामंतों के रूप में लगभग ८०० ई. से शासन करती आ रही थी। दसवीं शताब्दी में इस वंश की राजधानी के रूप में गंग धारा का नाम मिलता है जो संभवतया पुलिगेरे का ही अपरनाम या उपनगर था। इस वंश का प्रथम राजा युद्धमल प्रथम संभवतया वातापी के अंतिम चालुक्य कीर्तिवर्मन द्वितीय का ही निकट वंशज था। उसके उपरांत अरिकेसरी प्रथम, मारसिंह प्रथम, युद्धमल्ल द्वितीय, बद्दिग प्रथम, मारसिंह द्वितीय, और अरिकेसरी द्वितीय क्रमशः राजा हुए। अरि केसरी द्वितीय कन्नड़ भाषा के सर्व महान् कवि आदि पम्प (६४१ ई.) के ( जो जैन था.) आश्रयदाता थे। उनके पुत्र बद्दिग द्वितीय के समय में देवसंघ के आचार्य सोमदेव ने उसी की राजधानी गंग धारा में निवास करते हुए, ६५६ ई. में अपने सुप्रसिद्ध यशस्तिलक चम्पू की रचना की थी। आचार्य की प्रेरणा से जिनालय बनवाया, अन्य राजाओं ने दान जादि दिया।
नागरखण्ड के कदम्ब राजाओं में इनका वर्णन चालुक्यों और कलचुरियों के अन्तर्गत आ चुका है, जिनके वे सामंत थे। इस
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