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________________ जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास के उत्कष्ट त्याग से तैलपदेव का शासन काल धन्य हो उठा। वह सम्राट् के प्रधान सेनापति मल्लप की सुपुत्री थी, वाजीवंशीय प्रधानामात्य मंत्रीश्वर धल्ल की पुत्रवधु थी । प्रचण्ड महादण्डनायक और वीर नागदेव की वह प्रिय पत्नी थी, और कुशल प्रशासनाधिकारी वीर पदुवेल तैल की स्वनामधन्या जननी थी। आनेवाले शताब्दियों में बाचलदेवी, बम्मलदेवी, लोक्कलदेवी, आदि अनेक परम जिन भक्त महिलाओं की तुलना इस आदर्श नारी रत्न अति मब्बे के साथ की जाती थी। डॉ. भास्कर आनंद सालतोर के शब्दों में "जैन इतिहास के महिला जगत में सर्वाधिक प्रतिष्ठित प्रशंसित नाम अतिमब्बे है। सत्याश्रय इरिव बेडेंग (६६७-१००६ ई.) ने अपने पिता तैलप द्वितीय के शासनकाल में ही अपनी वीरता, पराक्रम और रणकौशल के लिए ख्याति प्राप्त कर ली थी । इस नरेश के गुरू द्रमिलसंघी विमलचंद्र पंडितदेव थे। अंगडि नामक स्थान में उक्त पण्डितदेव की एक अन्य गहस्थशिष्या हवुम्बे की छोटी बहन शांतियब्बे ने गुरू की पुण्य स्मति में एक स्मारक निर्माण कराया था। इस नरेश का प्रधान राज्याधिकारी उसके परम मित्र नागदेव और देवी अतिमब्बे का पुत्र पदुवेल तैल था, जो अपनी लोक पूजित जननी का अनन्य भक्त होने के साथ ही साथ परम स्वामी भक्त, सुयोग्य, स्वकार्यदक्ष तथा जिनेंद्र भक्त था । रन्न और पोन्न दोनों ही महाकवियों का वह प्रश्रयदाता था । ५° सोमेश्वर प्रथम त्रैलोक्यमल्ल आहवमल्ल (१०४२ - ६८ ई.) जयसिंह का पुत्र एवं उत्तराधिकारी था । वह पराक्रमी, वीर, योद्धा, श्रेष्ठ, कूटनीतिज्ञ भी था । वह एक निष्ठावान् जैन सम्राट् था । बेल्लारी जिला का कोंगली नामक स्थान पुरातन काल से एक प्रसिद्ध जैन केंद्र था। यहाँ एक महत्वपूर्ण जैन विद्यापीठ बनी हुई थी । सम्राट् के सान्तर, रट्ट, गंग, होयसल आदि इनके अनेक सामंत सरदार भी जैनधर्म के अनुयायी थे, उन्होंने जिनमंदिर बनवाये तथा भूमि आदि के दान दिये थे । सोमेश्वर की महारानी केतलदेवी ने भी, जो पोन्नवाड़ "अग्रहार" की शासिका थी, अपने सचिव चांकिराज द्वारा त्रिभुवनतिलक जिनालय में उसके स्वयं द्वारा निर्मापित उपमंदिरों के लिए १०५४ ई. में महासेन को दान दिया था। सोमेश्वर द्वितीय भुवनैकमल्ल (१०६६ - ७६ ई.) सोमेश्वर प्रथम का पुत्र एवं उत्तराधिकारी था तथा अपने पिता की ही भांति "भव्य " जैन था। चोलों के साथ उसके युद्ध चलते रहे और दो बार उसने उन्हें बुरी तरह पराजित किया । कदम्बों का भी उसने दमन किया। उसके राज्य के प्रथम वर्ष (१०६८ ई.) में ही उसके महासामंत लक्ष्मणराज ने बलिग्राम में जिनमंदिर बनवाया था, तथा शांतिनाथ मंदिर के लिए भूमि का दान दिया था। कई प्रतिमाएँ राजा ने प्रतिष्ठित कीं तथा भूमि का दान आदि दिया । T 237 ग्यारहवीं बारहवीं शताब्दी में विक्रमादित्य षष्ठ त्रिभुवनमल्ल साहसतुंग की ज्येष्ठ रानी जक्कलदेवी इंगलंगि प्रांत की शासिका थी। वह कुशल प्रशासक, वीर तथा जैन थी । अर्हत् शासन का स्तम्भ, अत्तिकाम्बिका और कोम्मराज का पुत्र चांकिराज, चालुक्य सम्राट् त्रैलोक्यमल्ल की महारानी केतलदेवी का दीवान था। महारानी केतलदेवी स्वयं पोन्नवाड़ अग्रहार की शासिका थी। इस ग्यारहवीं शताब्दी में दानी धर्मात्मा हरिकेसरी देव जो चालुक्यों का कदम्बवंशी सामन्त था, उसकी पत्नी लच्चलदेवी भी उसी की भांति जिनभक्त थी । इस दंपत्ति ने जैन मंदिर के लिए बहुत-सा भूमिदान दिया था। कुंतल देश में बनवासि नरेश कीर्तिदेव की अग्रमहिषी माललदेवी जिनभक्त, एवं धर्मपरायण सुंदरी थी। पाण्ड्य के महाप्रधान दण्डनायक सूर्य की भार्या कालियक्का ने ११२८ ई. में पार्श्व जिनालय बनवाया। कदम्ब कुल में चट्टलदेवी, श्रीदेवी, शंकर सामंत की पत्नी जक्कणब्बे आदि जिनभक्त श्राविकाएँ हुई थी । ५१ ई. सन् की बारहवीं शताब्दी में गंगवाड़ी के राजा भुजबल गंग की रानी महादेवी एवं बाचलदेवी दोनों ही जैनमत की संरक्षिका थी। बाचलदेवी ने बन्निकेरे में सुंदर जिनालय का निर्माण कराया था। राजा तैल की पुत्री तथा विक्रमादित्य शांतर की बड़ी बहन चम्पादेवी थी, इसकी पुत्री बाचलदेवी दूसरी अतिमब्बे थी। दोनों माँ-पुत्री चतुर्विध भक्ति में आस्थावान् थी। जैन सेनापति गंगराज की पत्नी लक्ष्मीमती अपने युग की अत्यंत प्रभावशालिनी नारी थी। गंगराज के बड़े भाई की पत्नी अककणब्बे जैन धर्म की बड़ी श्रद्धालु थी, सेनापति सूर्यदण्डनायक की पत्नी दावणगेरे की भक्ति भी प्रसिद्ध है |२ तेरहवीं शताब्दी में होयसल नरेश विष्णुवर्द्धन की रानी शांतलदेवी द्वारा जैनधर्म के लिए किये गये कार्य चिरस्थायी है। विष्णुवर्द्धन की पुत्री हरियब्बरसि भी जैन धर्म की भक्त थी। नागले भी विदुषी और धर्मसेविका महिला थी, उसकी पुत्री देमति चारों प्रकारों का दान करती थी। राष्ट्रकूट, चोल, चालुक्य और कलचुरि नामक सम्राट् वंशों के बाद दक्षिण भारत में इस युग का सर्वाधिक शक्तिशाली एवं महत्वपूर्ण राज्यवंश होयसलों का था, जो प्रारंभ में कल्याणी के चालुक्य सम्राटों के अधीन महासामंत रहे और उनकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003610
Book TitleJain Shravikao ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages748
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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