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दिया गया था । लगभग ढाई सौ वर्ष के राष्ट्रकूट युग में जैनधर्म, विशेषकर उसका दिगंबर संप्रदाय, संपूर्ण दक्षिणापथ में सर्वप्रधान धर्म था । डॉ. आल्लेकर के मतानुसार राष्ट्रकूट साम्राज्य की लगभग दो तिहाई जनता तथा उनके अधीनस्थ राजाओं, उपराजाओं, सामंत सरदारों, उच्च पदाधिकारियों, राजकर्मचारियों एवं महाजनों और श्रेष्ठियों में से अधिक्तर लोग इसी धर्म के अनुयायी थे । लोकशिक्षा भी जैन गुरूओं एवं बसदियों द्वारा संचालित होती थी । अपने इस महत् प्रभाव के फलस्वरूप जैनधर्म ने जन जीवन की प्रशंसनीय नैतिक उन्नति की राजनीति को प्राणवान् बनाया, और भारतीय संस्कति की सर्वतोमुखी वद्धि की । इस युग के अमोघवर्ष प्रमुख जैन नरेशों और उनके बंकेय, श्रीविजय, नरसिंह, चामुण्डराय जैसे प्रचण्ड जैन सेनापतियों ने पूरे दक्षिण भारत पर ही नहीं पूर्वी, पश्चिमी एवं मध्य भारत तथा उत्तरापथ के मध्यदेश पर्यंत अपनी विजय वैजयन्ती फहरायी, और बड़े बड़े रणक्षेत्रों में यमराज को खुलकर भयंकर भोज दिये । उनके लिए जैनधर्म इन कार्यों में तनिक भी बाधक नहीं हुआ।
आठवीं से पंद्रहवीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
दक्षिण के इतिहास में चोल वंश के इतिहास को सबसे शानदार माना जाता है। नौवीं शताब्दी में इसने अपने गौरव को पुनः स्थापित किया तथा तेरहवीं शताब्दी के आरंभ तक शासन किया। राजराजाप्रथम तथा उसका पुत्र राजेंद्र प्रथम चोल को सूर्यवंशी क्षत्रिय बताया गया है, जो पहले उत्तरी भारत में रहते थे, कालांतर में वे दक्षिण भारत में पहुँच गए तथा वहाँ स्थायी रूप बस गए। डॉ. आर. सी. मजुमदार का मत है कि "चोल" शब्द का अर्थ श्रेष्ठ है। क्यों कि चोल अति प्राचीन तथा श्रेष्ठ वंश से संबंधित थे इसलिए इन्हें चोल कहा गया। नौवीं दसवीं शताब्दी के मध्य चोल शासक विजयाचलम् ने तंजौर को राजधानी बनाकर अपने वंश की स्थापना की और चोल राज्य का पुनरूत्थान किया। उसके वंश में राज- राजा केसरिवर्मन चोल (६८५-१०१६ई.) इस वंश का सर्वमहान नरेश था। जैन तीर्थ पंच पाण्डवमलै के ६६२ ई. के तमिल शिलालेख के अनुसार इस नरेश के एक बड़े उपराजा लाटराज वीर चोल ने अपनी रानी लाटमहादेवी की प्रार्थना पर, तिरुप्पानमलै के जिनदेवता को एक ग्राम की आय समर्पित की थी। उन्हीं के समय में ईस्वी १०२३ में पवित्रपर्वत तिरुमलै के शिखर पर स्थित कुन्दवे जिनालय को दान दिया था, जो राजराजा चोल की पुत्री, राजेंद्र चोल की बहन और विमलादित्य चालुक्य की रानी कुन्दवै द्वारा बनवाया गया जिनालय था । कोलुत्तुंग चोल (१०७४–११२३ ई.) बड़ा चतुर वीर और पराक्रमी था। स्वयं सम्राट् जैन धर्म का अनुयायी था और उसके आश्रय में अनेक जैन धार्मिक एवं साहित्यिक कार्य हुए। राजेंद्र चोल द्वारा नष्ट किये गये जैन मंदिरों का जीर्णोद्धार करवाया गया। प्राचीन भारत के चरित्रवान् नरेशों में कोलुत्तुंग चोल की गणना की जाती है। इस नरेश के पश्चात् उसका चतुर्थपुत्र अकलंक सिंहासन पर बैठा, उसकी राजसभा भी विद्वानों और गुणियों से भरी रहती थी। इसके उपरान्त अन्य कोई जैन नरेश इस वंश में नहीं हुआ। अतिगैमान चेर जो राजराजा का पुत्र था, उसने तिरूमलै पर्वत के मंदिर में यक्ष मूर्तियों का जीर्णोद्धार कराया । यह राजकुमार संभवतया केरल नरेश एरणि चेर के वंश की राजकुमारी से उत्पन्न था। ४६
वातापी के पश्चिमी चालुक्यों की राजसत्ता का अंत कीर्तिवर्मन द्वितीय के साथ ७५७ ई. में हो गया था। उसके चाचा भीम पराक्रम की सन्तति से उत्पन्न तैलप द्वितीय द्वारा दो सौ वर्ष के उपरान्त चालुक्य राज्यश्री का पुनः अभ्युत्थान हुआ, और इस बार इतिहास में वे कल्याणी के उत्तरवर्ती चालुक्य कहलायें । तैलप द्वितीय आहवमल्ल वातापी के चालुक्यों के वंश में उत्पन्न विक्रमादित्य चतुर्थ का पुत्र था। और ६५७ ई. में राष्ट्रकूट कष्ण ततीय के अधीन वह एक निरूपाधिक शासक था। आठ वर्ष में वह अपने साहस, पराक्रम और युद्ध सेवाओं के बल पर सम्राट् का कपापात्र बन गया और महासामन्ताधिपति चालुक्यराम आहवमल्ल तैलपरस कहलाने लगा। उसका विवाह राष्ट्रकूटवंशी सामंत बम्महाट्ट की कन्या जकब्बे अपर नाम लक्ष्मी के साथ किया गया। कहा जाता है कि मुंज परमार ने छः बार तैलप के राज्य पर आक्रमण किया और प्रत्येक बार पराजित होकर लौटा। अंतिम बार वह तैलप द्वारा बंदी बना लिया गया । तैलप की बहन मणालवती से प्रेम करके वह बन्दीगह से निकल भागा, किंतु पकड़ा गया और मार डाला गया । तैलप का निधन ६६७ ई. में हुआ । ई. ९७४ में कल्याणी में उसका राज्याभिषेक हुआ था । कन्नड़ भाषा का जैन महाकवि रन्न (रत्नाकर) उसका राजकवि था । कवि के प्रारंभिक आश्रयदाता चामुण्डराय दिवंगत हो चुके थे। सन् ६६३. ई. में कवि के अजितपुराण अपरनाम पुराण तिलक महाकाव्य की समाप्ति पर तैलपदेव ने उसे "कवि चक्रवर्ती" की उपाधि से विभूषित किया था । कल्याणी के उत्तरवर्ती चालुक्यों के वंश एवं साम्राज्य की स्थापना में जिन धर्मात्माओं के पुण्य, आशीर्वाद और सद्भावनाओं का योग रहा उनमें सर्वोपरि महासती अतिमब्बे थी, जिनके शील, आचरण, धार्मिकता, धर्मप्रभावना, साहित्य सेवा, वैदुष्य, पातिव्रत्य, दानशीलता आदि सद्गुणों
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