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________________ जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास 235 का निर्माण अम्मराज के नाम पर ही किया था। अम्म द्वितीय को पाँचवी पीढ़ी में १०२२ ई. के लगभग विमलादित्य राजा हुआ था। उसकी पटरानी थी कुन्दब्बे जिसने कुन्दब्बे जिनालय ग्राम का भव्यजिन मंदिर बनवाया था। राष्ट्रकूट वंश दक्षिण के प्रमुख राजवंशों में से एक था। इस वंश ने आठवीं से दसवीं शताब्दी तक शासन किया। इसने दक्षिण की राजनीति तथा सांस्कतिक जीवन में प्रशंसनीय योगदान दिया। राष्ट्रकूट वंश के विषय में विद्वानों के विभिन्न मत है। अधिकांश इतिहासकारों का कथन है कि राष्ट्रकूटों के पूर्वज चालुक्यों के अधीन राष्ट्र (प्रान्त) के शासक थे। उन्हें राष्ट्रपति कहा जाता था। इस उपाधि के आधार पर उनके राजवंश का नाम राष्ट्रकूट पड़ गया। राष्ट्रकूट वंश की स्थापना दन्तिदुर्ग ने ७४२ ईस्वी में की थी । इस वंश ने ६७३ ईस्वी तक शासन किया। ध्रुव एवं गोविंद ततीय राष्ट्रकूट वंश के सर्वाधिक महान् शासक थे। दन्तिदुर्ग के उपरांत उसका चाचा कृष्ण प्रथम अकालवर्ष-शुभतुंग (ई. ७५७-७७३) राजा हुआ। वह भी भारी विजेता और पराक्रमी नरेश था। एलोरा के सुप्रसिद्ध कैलाश मंदिर के निर्माण का श्रेय उसे ही दिया जाता है। इसी परंपरा में कष्ण प्रथम का लघु पुत्र ध्रुव धारावर्ष निरूपम (७७६-७६३ ई.) की पटरानी शीलभट्टारिका बेंगि के चालुक्य नरेश विष्णुवर्द्धन चतुर्थ की पुत्री थी, जैन धर्मी थी तथा श्रेष्ठ कवियित्री भी थी। अपभ्रंश भाषा के जैन महाकवि स्वयंभू ने अपने रामायण, हरिवंश, नागकुमारचरित, स्वयम्भूछंद आदि महान् ग्रंथों की रचना इसी नरेश के आश्रय में उसी की राजधानी में रहकर की थी। स्वयम्भू की पत्नी सामिअब्बा भी बड़ी विदुषी थी। सम्राट ने अपनी राजकुमारियों को शिक्षा देने के लिए उसे नियुक्त किया था। सम्राट् अमोघवर्ष प्रथम का इस वंश के सर्व महान् सम्राटों में उल्लेखनीय स्थान है। वह जैन धर्म का अनुयायी था और राजर्षि के रूप में विख्यात था। राजर्षि ने ई. ८७६ में राज्यकार्य का भार यवराज कष्ण को सौंपकर अवकाश ले लिया था और एक आदर्श त्यागी श्रावक के रूप में समय व्यतीत किया था। सन ८७८ और ८८० ई. के मध्य इस राजर्षि का निधन हुआ। स्वयं सम्राट् के अतिरिक्त उसकी महारानी गामुण्डब्बे, पट्टमहिषी उमादेवी, राजकुमारियाँ शंखा देवी, और चन्द्रबेलब्बे, चचेरा भाई कर्कराज, युवराजकृष्ण, इत्यादि राजपरिवार के अधिकतर सदस्य जिनभक्त थे। सम्राट अमोघवर्ष प्रथम के राजपुरूषों में जैनधर्म की दष्टि से सर्वाधिक उल्लेखनीय उसका महासेनापति वीर बंकेयरस है। वह मुकुल नामक व्यक्ति के कुल में उत्पन्न हुआ था, जो राष्ट्रकूट कष्ण प्रथम की सेवा में था। उसका पुत्र एरिकोटि तथा एरिकोटि का पुत्र धोर था । धोर की पत्नी विजयांका से इस बंगकेश का जन्म हुआ था कृष्ण द्वितीय शुभतुंग अकालवर्ष और इसकी पटरानी दोनों जैन धर्मानुयायी थे । इस दसवीं शताब्दी में ही कष्ण द्वितीय का पौत्र इंद्र ततीय हुआ था। उसके महान् सेनापति नरसिंह और श्रीविजय दोनों ही जैनधर्म के अनुयायी थे। श्रीविजय जीवन के अंतिम समय में जैन मुनि हो गया था। इंद्र ततीय ने अपने पट्टरंधोत्सव पर चार सौ ग्राम दान में दिये थे। उसकी जननी लक्ष्मीदेवी थी। राष्ट्रकूट सम्राट् कृष्णा द्वितीय के समय में ६११ ई. में बंकेयपुत्र महासामन्त कलिबिट्टरस था, उसके अधीन नागरखण्ड का सामंत सत्तरस नागार्जुन था। उसकी मत्यु हो गई तो उसकी पत्नी जाक्कियब्बे को उसके स्थान पर सामंत नियुक्त किया गया । यह महिला उत्तम प्रभुशक्तियुक्त, जितेंद्र शासन की भक्त और अपनी योग्यता एवं सौंदर्य के लिए प्रसिद्ध थी । इसने सात-आठ वर्ष पर्यंत अपने पद का सफल निर्वाह किया और अपने प्रदेश THE१८ ई. में रूग्ण होने पर अपनी संपत्ति और पदभार अपनी पुत्री को सौंप दिया और स्वयं बंदनि के एक बसदि में जाकर सल्लेखनापूर्वक देह का त्याग किया 180 इंद्र ततीय के उपरान्त, इस वंश के अंतिम नरेशों में राष्ट्रकूट कष्ण ततीय अकालवर्ष (६३६-६६७ ई.) हुए जो स्वयं एक वीर योद्धा, दक्ष सेनानी, मित्रों के प्रति उदार, विद्वानों का आदर करनेवाला, धर्मात्मा एवं प्रतापी नरेश था । अपने पूर्वजों की भांति वह जैन धर्म का पोषक था । जैनाचार्य वादिघंगल भट्ट का वह बड़ा आदर करता था । उन्हीं की मंत्रणा एवं परामर्शों के फलस्वरूप वह अपने युद्धों में तथा विभिन्नप्रदेशों को विजयी करने में सफल हुआ था । "शांतिपुराण" और "जिनाक्षर माले' के रचयिता कन्नड़ के जैन महाकवि पोन्न को "उभयभाषाचक्रवर्ती” की उपाधि देकर कृष्ण ततीय ने उन्हें सम्मानित किया था एवं प्रश्रय दिया था । सम्राट् के प्रधान मंत्री भरत और उनके पुत्र नन्न अपभ्रंश भाषा के जैन महाकवि "पुष्पदंत" के प्रश्रयदाता थे । महामंत्री भरत जैन धर्मावलम्बी कौण्डिन्यगोत्रीय ब्राह्मण थे । इनके पितामह का नाम अणप्या, पिता का एयण और माता का नाम श्रीदेवी श । इनकी पत्नी का नाम कुंदव्वा और सुपुत्र का नाम नन्न था । कष्ण ततीय की मत्यु के पश्चात् उसका छोटा भाई राष्ट्रकूट सिंहासन पर बैठा। इस नरेश ने अर्हत् शांतिनाथ के लिए पाषाण की एक सुंदर चौकी बनवाकर समर्पित की थी । इसी नरेश के सामत पड्डिग ने, अपनी भार्या जक्किसुंदरी द्वारा काकम्बल में निर्मापित भव्य जिनालय के लिए दो ग्राम प्रदान किये थे । यह दान ६६८ ई. में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003610
Book TitleJain Shravikao ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages748
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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