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आठवीं से पंद्रहवीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
विक्रम से ४०० वर्ष पूर्व ४५७ ई. पू. में ओसवाल वंश की स्थापना हुई थी। संवत् ६०० से संवत् १६०० तक जैनाचार्यों के द्वारा ओसवाल गोत्रों की स्थापना का वर्णन प्राप्त होता है। ओसवाल जाति के समुचित विकास का प्रारंभ सं. १००० के पश्चात् होता हैं। संपूर्ण ओसवाल जाति जैन धर्म की अनुयायी थी। आचार्य रत्नप्रभसूरी जी ने ओसियाँ में ओसवाल वंश की स्थापना की तथा उस क्षेत्र में जैन धर्म का प्रचार प्रसार किया था। आचार्य बप्पभट्टसूरि जी वि. सं. ८०० में हुए थे। उस समय अणहिलपुर पाटन में महाप्रतापी वत्सराज, आमराजा के नाम से प्रसिद्ध हुए थे। आचार्य बप्पभट्टसूरि जी ने उन्हें जैन धर्म में दीक्षित किया था। आमराजा ने संवत् ८२६ में मथुरा, कन्नौज, अणहिलपुरपाटण, तारक नगर, मोडेरा आदि शहरों में जैन मंदिर बनवाए थे। आमराजा की एक रानी वणिक् पुत्री थी, उसकी संतान ओसवाल जाति में सम्मिलित हुई थी। जिनका गोत्र कोठारी के नाम से प्रसिद्ध हुआ था। तत्पश्चात् वि. सं १५० मे आचार्य नेमिचंद्रसूरि जी हुए थे, संवत् ६५४ में उन्होंने बरड़िया गोत्र की स्थापना की थी। संवत् १००० में आचार्य जी वर्द्धमानसूरि जी हुए थे। उन्होंने संवत् १०५५ में आचार्य हरिश्चंद्रसूरि जी के “उपदेशपद" ग्रंथ की रचना की थी। "उपदेशमाला" बहद् उपमितिभवप्रपंचा-समुच्चय उनकी अन्य रचनाएँ हैं। आपने लोढ़ा एवं पीपाड़ा गोत्र की स्थापना की थी। संवत् १०६१ से ११११ के बीच श्री जिनेश्वरसूरि हुए थे, चैत्यवासी परंपरा के राजा दुर्लभराज के पुरोहित शिवशर्मा को उन्होंने शास्त्रार्थ में पराजित किया था। संवत् १०८० में आपको खरतर का विरूद प्राप्त हुआ था। आपका गच्छ खरतरगच्छ के नाम से प्रसिद्ध हुआ, आपने ढड्डा एवं भणसाली गोत्रों की स्थापना की थी।
___आचार्य श्री जिनभद्रसूरी जी खरतरगच्छ के प्रतिभाशाली जिन शासन प्रभावक आचार्य हुए है। आपके उपदेश से गिरनार, चित्रकूट (चित्तौड़) मंडोवर आदि अनेक स्थानों में बड़े बड़े जिनमंदिर बने थे। अणहिलपुर पट्टन आदि स्थानों में आपने विशाल पुस्तक भंडारो की स्थापना की थी। मांडवगढ़, पालनपुर, तलपाटक आदि नगरों में अनेक जिन बिम्बों की प्रतिष्ठा की थी। जैसलमेर के तत्कालीन राजा रावत श्री वैरसिंह, और त्र्यंबकदास जैसे प्रतिष्ठित व्यक्ति आपके चरणों में नतमस्थक थे। आपके उपदेश से साह शिवा आदि चार भाईयों ने संवत् १४६४ में जैसलमेर में एक भव्य मंदिर का निर्माण करवाया था। संवत् १४६७ में आचार्य श्री जी ने जैसलमेर मंदिर में ३०० जिनबिम्बों की प्रतिष्ठा की थी। जिसकी प्रशस्तियाँ आज भी इस मंदिर में लगी हुई है।३२
सन् १६७२ में आचार्य प्रवर श्री पुण्यविजय जी महाराज ने जैसलमेर जैन ग्रंथ भंडारों की हस्तलिखित सूची प्रकाशित करवाई थी। इसमें जिनभद्र ज्ञानभंडार के ताड़पत्रीय तथा कागज की हस्तलिखित प्रतियों में लिखे कर्ता, लेखक आदि की पुष्पिका तथा प्रशस्ति ग्रंथ में लिखे गये ऐतिहासिक नाम प्राप्त होते हैं। इन हस्तलिखित ग्रंथों की प्रतिलिपियाँ करवाने में श्राविकाओं का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। श्राविका अभयश्री एवं कर्पूरदेवी ने भगवतीसूत्र के वत्ति की प्रतिलिपि करवाई थी। आल्ही व कउतिग ने कल्पसूत्रसंदेहविषौषधी वत्ति लिखवाई थी। कुमरिका, कुँअरी, केल्हणदेवी, गुणदेवी, गंगा, कर्पूरी, चंद्रावली, जयश्री, जाल्हणदेवी, जयदेवी, जयंति, जसमाई, चतुरंगदे आदि श्राविकाओं ने विविध ग्रंथों की प्रतिलिपियाँ करवाई थी तथा साहित्य के भण्डार को अक्षुण्ण बनाया था। ५.६ दक्षिण भारत में जैन धर्म :
उत्तर भारत जैन धर्म की जन्मभूमि है। भगवान् ऋषभदेव से लेकर भगवान् महावीर तक चौबीस तीर्थंकरों का जन्म और निर्वाण उत्तर भारत में ही हुआ था। किन्तु उनका विहार दक्षिण भारत में भी हुआ था, अतः दक्षिण भारत में जैन धर्म के प्रवेश का कोई सुनिश्चित काल नहीं है। किन्तु कतिपय ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार पर इतिहासकार, अंतिम श्रुतकेवली आचार्य भद्रबाहु स्वामी की दक्षिण यात्रा के साथ दक्षिण में जैनधर्म का प्रवेश मानते हैं। श्रवणबेलगोला के ७वीं शती के एक अभिलेख के अनुसार चंद्रगुप्त मौर्य के समय में श्रुतकेवली भद्रबाहु स्वामी ने हजार मुनियों के संघ के साथ दक्षिण की ओर प्रस्थान किया था। श्रवणबेलगोला में ही एक पहाड़ी पर जिसे कलवधु या कटवप्र कहते थे, उस पर अपने शिष्य चंद्रगुप्त के साथ उन्होंने अपना अंतिम समय बिताया था। और समाधिपूर्वक शरीर का त्याग किया था। श्रवणबेलगोला के चंद्रगिरी पहाड़ी पर ईसा की छठी सातवीं शताब्दी के एक शिलालेख पर उक्त विवरण अंकित हैं। विद्वत्वर्ग इसे पर्याप्त परवर्ती होने के कारण इसकी प्रामाणिकता पर संशय करते
हैं।
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