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________________ जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास कलिंग से आंध्र की सीमा मिलती हैं, अतः कलिंग से आंध्र में जैन धर्म का प्रवेश भगवान् महावीर के समय में होना संभव हैं और वहीं से सभवतः तमिल प्रदेश में उसका प्रवेश हुआ होगा। इसका प्रमाण उत्तर आरकाट जिला है, जो तेलुगु प्रदेश के निकटवर्ती तमिल प्रदेश के उत्तर भाग से संबद्ध हैं। उनमें पाये जाने वाले पाषाण खण्डों पर उत्कीर्ण शिलालेख और मूर्तियां हैं। वहां से जैन धर्म तमिल देश के दक्षिण में गया और वहां से समुद्र पार करके श्रीलंका में पहुंचा। यह घटना ईसा पूर्व चौथी या तीसरी शताब्दी की घटित होनी चाहिए। जैन गुरुओं का दूसरा स्रोत तमिल देश में ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में कर्नाटक की ओर से प्रवाहित हुआ था। ये जैन साधु आचार्य भद्रबाहु स्वामी जी के शिष्य थें, जो विशाखाचार्य जी के नेतत्व में अपने गुरू के अंतिम आदेशानुसार उनकी भावना को क्रियात्मक रूप देने के लिए उधर गए थे । अतः इससे यह स्पष्ट होता है कि भद्रबाहु के काल जैन धर्म का दक्षिण भारत में प्रवेश हुआ था । उसके प्रचार और प्रसार को बल मिला और दक्षिण भारत जैन धर्म का प्रमुख केन्द्र बन गया था । अनेक शासकों और राजवंशों के सदस्यों ने उसे संरक्षण दिया था और जनता ने उसका समर्थन किया था । दक्षिण भारत में जैन धर्म की स्थिति के दिग्दर्शन का प्रारम्भ इस तमिल प्रदेश से करना उचित होगा, क्योंकि जो शिलालेख आदि प्रकाशित हुए हैं, वे प्रायः दक्षिण भारत के प्रारम्भिक इतिहास की अपेक्षा मध्यकालीन इतिहास से अधिक निकट पड़ता है। दक्षिण भारत में जैन धर्म की पूर्व स्थिति को जानने के लिए हमें मुख्य रूप से तमिल साहित्य का ही आश्रय लेना होता है। समस्त तमिल साहित्य को तीन कालों में विभाजित किया जा सकता है- १. संगमकाल २. शैवनायनार काल (वैष्णव अलवरों का काल ) तथा ३. आधुनिक काल । संगमकालीन तमिल साहित्य से तमिल राज्यों में जैनधर्म के इतिहास तथा जीवन के संबंध में नीचे लिखित तथ्य प्रकाश में आते हैं। १. २. ३. ४. 227 तोलकाप्पिय के समय , जो अवश्य ही ई. पू. ३५० से पहले रचा गया ग्रंथ था, उस समय में संभवतः भारत एकदम दक्षिण प्रदेश तक जैनों का प्रवेश नहीं हुआ था । ईसा की प्रथम शताब्दी से पूर्व अवश्य ही जैन धर्मानुयायी भारत के एकदम दक्षिण तक प्रवेश करके वहां बस गये थे और स्थायी रूप से निवास करने लगे थे । जिसे तमिल साहित्य का उच्चतम काल कहा जाता है वह जैनों का भी उत्कर्षकाल था । ईसा की पांचवी शताब्दी के पश्चात् जैन धर्म इतना प्रभावशाली और शक्तिशाली हो गया था कि वह कुछ पाण्ड्य राजाओं का राजधर्म बन गया था । ५.७ शैवों और वैष्णवों का काल : जैनधर्म का पतन ईसा की छठीं शताब्दी से जो काल प्रारम्भ होता है, उसे ब्राह्मण धर्म के उत्थान का और जैन धर्म के पतन का काल कहा जा सकता है। किसी धर्म की शक्ति और अभ्युन्नति राजा से प्राप्त मदद पर भी निर्भर करती है। जब वे उस धर्म को संरक्षण देना बंद कर देते हैं या उसके विरोधी धर्म को स्वीकार कर लेते हैं तो उस धर्म के मानने वालों की संख्या में भी ह्रास होता है। तंजोरा जिले के पुरोहित पुत्र सम्बंदर ने पाण्ड्य राज्य में जैन धर्म का पतन कराया तो अप्पर ने पल्लव देश से जैन धर्म को निष्कासित किया। जैन धर्म के प्रबल शत्रु सम्बन्दर की प्रेरणा से आठ हजार जैन कोल्हु में पेल दिये गये थे । वे सब जैन धर्म के मात्र अनुयायी नहीं किंतु मुखिया थे । इस तरह ईसा की सातवीं शताब्दी के मध्य और आठवीं शताब्दी के प्रारम्भ में पल्लव और पाण्ड्य देशों में जैनों को लगातार आपत्तियों का सामना करना पड़ा था। दढ़ जैन धर्मानुयायी सुंदर घाण्ड्य का धर्मपरिवर्तन मदुरा राज्य के धार्मिक इतिहास में केवल एक प्रासंगिक घटना नहीं है। यह एक राजनैतिक क्रांति थी जिसका लाभ ब्राह्मण संत सम्बन्दर ने खूब उठाया था। फलस्वरूप हजारों जैनों को बलात् शैव बनाया गया और जिन्होंने अपनी कट्टरतावश शैव धर्म स्वीकार नहीं किया उन्हें देश से निकाल दिया गया। दक्षिण में जैनों का दढ़ प्रभुत्व मदुरा में था और उसके सूत्रधार जैन साधु मदुरा के समीपवर्ती आठ पहाड़ियों पर रहते थे। दिगंबर जैन संतों की चर्चा का उसमें वर्णन है। सम्बन्दर और अय्यार ने जैनों को पराजित करने के जो ढंग अपनाये वे असभ्य और क्रूर थे । दक्षिण भारत में कर्नाटक प्रांत को जैन धर्म का घर कहते हैं । कर्नाटक की स्थानीय जनता के साथ जैन धर्म के प्रवर्तकों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003610
Book TitleJain Shravikao ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages748
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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