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आठवीं से पंद्रहवीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
और अनुयायियों का इतना अनुराग रहा कि धीरे धीरे जैनधर्म प्रवासी धर्म न रहकर कर्नाटक का निवासी धर्म बन गया और ई. सन् की दूसरी शताब्दी से तेरहवीं शताब्दी तक कर्नाटक के कतिपय अत्यंत प्रभावशाली और यशस्वी राजवंशों के भाग्य का वह सूत्र संचालक रहा । कर्नाटक में जैन धर्म की प्रतिष्ठा एवं उत्तरोत्तर विकास की तीव्र गति और गौरवमयी सफलता का श्रेय केवल उसकी आंतरिक वारिद सम योग्यता को नहीं जाता । अन्य अनेक पहलू भी थे जिनमें सबसे महत्वपूर्ण था, राजनैतिक जीवन में जैन गुरूओं का प्रवेश एवं प्रभाव । जैन गुरूओं ने राज्यों के निर्माण में भाग लिया, जन कल्याणकारी प्रवत्तियों को प्रोत्साहित किया फलस्वरूप दक्षिण के प्रमुख एवं यश प्राप्त राजवंशो ने जैन संस्कृति के अभ्युदय में रचनात्मक सहयोग दिया और राज्य संचालन से जुड़े पदासीन प्रमुख लोगों ने इसका अनुकरण किया । यह सहयोग भावना एक पक्षीय नहीं थी । राजवंशों की उन्नति में जैनाचार्यों के उदात्त मनोबल की वजशक्ति ने नींव की ईंट का काम किया । लुई राईस के अनुसार दक्षिण के प्रमुख गंग राजवंश ने शताब्दियों तक जैन धर्म का संपोषण एवं संवर्द्धन किया । इसका श्रेय जाता है आचार्य सिंहनंदी की दूर दष्टि और कुशल कार्य प्रणाली को जो गंग-राजवंशियों की मार्गदर्शिका बनी और समय पर उन्हें पूरा सहयोग दिया । राष्ट्रकूट, चालुक्य, तथा होयसल राजवंशों के उत्तराधिकारी एक के बाद एक जैनधर्म की उत्थान-प्रक्रिया में एक पथ के यात्री बनते चले गये और स्वयं को जैनधर्म के उत्थान के साथ एकमेक कर दिया । राष्ट्रकूट वंश के राजा अमोघवर्ष की जैनधर्म के प्रति अनन्य प्रीति उसकी धवल कीर्ति बन गई जिसके उपलक्ष्य में दो उच्च कोटि के ग्रंथ "षट्खण्डागम" की धवलाटीका एवं "कषायपाहुड" की जयधवलाटीका की रचना हुई । इसके श्रेय भागी है आचार्य वीरसेन एवं जिनसेन। ईसा की प्रारंभिक शताब्दियों से लेकर बारहवीं शताब्दी तक तमिल तथा तेलुगु साहित्य के साथ ही जैनों ने कन्नड़ भाषा में भी साहित्य की रचना की । कन्नड़ भाषा के साहित्य में "आदि पम्प" और "अभिनव पम्प” के नाम उल्लेखनीय है । "आदि पुराण" और "भारत" जैसे दो ग्रंथों की रचना के माध्यम से पम्प कवि ने भारतीय संस्कति की अरूण छवि को जिस भांति चित्रित कर उपमेय से उपमान बनाया है, उसका मूल्य नहीं आंका जा सकता । कन्नड़ साहित्य की संपन्नता की अभिवद्धि में जैन लेखिकाओं की भी सशक्त भूमिका रही है । इनमें कवियित्री कति का नाम उल्लेखनीय हैं, जिन्होंने स्व रचना के अलावा "अभिनवपम्प" की अधूरी कविता पूरी की और काव्य-दक्षता के साथ-साथ नैतिक, धार्मिक, दायित्वों के निर्वाह के प्रति अपनी जागरूकता का प्रशंसनीय परिचय दिया।
श्रवणबेलगोला का इतिहास ईसा से ३०० वर्ष पूर्व उस समय प्रारंभ होता है, जब अंतिम श्रुतकेवली भद्रबाहु ने उज्जयिनी में १२ वर्ष के दुर्भिक्ष की आशंका से अपने १२००० शिष्यों सहित उत्तरापथ से दक्षिणा पथ को प्रस्थान किया। उनका संघ क्रमशः एक बहुत समद्धियुक्त जनपथ में पहुंचा। चंद्रगुप्त भी उनके साथ थे, यहाँ आकर उनको विदित हुआ कि उनकी आयु अब बहुत कम शेष है । उन्होंने विशाखाचार्य को संघ का नायक बनाकर उन्हें चोल और पाण्ड्यदेश भेज दिया । भद्रबाहु स्वयं संलेखना (समाधिमरण) धारण करने के लिए पास वाले चंद्रगिरि पर्वत पर चले गये जिसको कटवप्र भी कहते हैं । नवदीक्षित चंद्रगुप्त मुनि ने अपने गुरू की खूब सेवा की और स्वयं ने भी गुरू के पथ का अनुसरण किया । इसी पहाड़ी पर प्राचीनतम मंदिर चंद्रगुप्त बस्तिका
पर भद्रबाहु गुफा में चंद्रगुप्त के चरणचिन्ह है । इसी स्थान पर ७०० जैन श्रमणों ने समाधिमरण किया । इसी नगर की दूसरी पहाड़ी विंध्यगिरि पर गंग नरेश राचमल्ल के मंत्री तथा सेनापति वीरमार्तण्ड चामुण्डराय ने अपनी माता काललदेवी की प्रेरणा से बाहुबली की ५७ फुट ऊँची विशालमूर्ति बनवाई। श्रवणबेलगोला से जिन तीन महापुरूषो का संबंध हैं, वे तीन महापुरूष हैं :
१. प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव की द्वितीय रानी सुनंदा के पुत्र बाहुबली. २. सम्राट चंद्रगुप्त ३. बाहुबली की मूर्ति के निर्माता वीर मार्तण्ड चामुण्डराय,
जिस प्रकार सम्मेद शिखरजी क्षेत्र उत्तर भारत के बिहार प्रांत में स्थित पुण्य क्षेत्र है, उसी प्रकार श्रवणबेलगोला दक्षिण भारत के कर्नाटक प्रांत में स्थित अद्वितीय क्षेत्र है। इसी श्रवणबेलगोला के अंतर्गत द्वय पर्वत चंद्रगिरि और विधयगिरि है जो हमारी आस्था और श्रद्धा के प्रतीक हैं ।
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