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________________ 110 पौराणिक/प्रागैतिहासिक काल की जैन श्राविकाएँ सुंदरी अलौकिक प्रतिभा की धनी थी। श्री ऋषभदेव जी ने गणित विद्या की शिक्षा सुंदरी को दी, एवं सुंदरी ने उसे स्वयं ग्रहण करके औरों को भी सिखायी। इस प्रकार गणित के प्रचार की प्रथम प्रचारिका बनने का श्रेय सुंदरी को ही प्राप्त हुआ था। सुन्दरी के कारण हि गणित विद्या आज सर्वत्र प्रसारित है। २.५ द्वितीय तीर्थंकर श्री अजितनाथ जी से संबंधित श्राविकाएँ : २.५.१ विजयादेवी :- इस अवसर्पिणीकाल के द्वितीय तीर्थंकर भगवान अजितनाथ की माता का नाम विजया देवी था। वे भगवान् ऋषभदेव के इक्ष्वाकु वंश परंपरा में विनिता नगरी के महाप्रतापी राजा जितशत्रु की सर्वगुणसंपन्न, रूप लावण्य संपन्न महारानी थी। वह प्रजा का पालन करते हुए श्रमणोपासक धर्म का सुचारूरूपेण पालन करती थी। जब से पुत्र गर्भ में आया जितशत्रु राजा को कोई जीत न सका। प्रत्येक क्षेत्र में वह अजित रहा, अतः बालक का नाम "अजित” रखा गया आवश्यक चूर्णि में उल्लेख है कि जब से प्रभु गर्भ में आए महाराज जितशत्रु महारानी विजया से हारते रहे और महारानी विजया जीतती रही, अतः पुत्र का सार्थक नाम अजित रखा गया ।२६ अपने देवर सुमित्र के पुत्र सगर से भी विजयादेवी पुत्रवत् स्नेह रखती थी। विजया देवी ने सजल नेत्रों से अपने पति एवं पुत्र को उनकी इच्छा के अनुरूप त्याग मार्ग पर अग्रसर किया। तत्पश्चात् स्वयं भी दीक्षा अंगीकार की। एक त्यागी तपस्विनी वंदनीय महिला के रुप में वह सदैव स्मरणीय रहेगी। __२.५.२ वैजयन्ती :- द्वितीय तीर्थंकर भगवान् अजितनाथ के चाचा युवराज सुमित्र विजय की युवरानी का नाम वैजयंती था। वैजयंती महारानी ने चौदह स्वप्न देखे तथा अजितनाथ भगवान् के जन्म के कुछ ही क्षणों के अंतर से चक्रवर्ती पुत्र सगर को जन्म दिया। तेजस्विनी माता ने बड़ी कुशलता से वीरता एवं धर्ममय संस्कारों से पुत्र को सिंचित किया तथा समाज पर महान उपकार किया। २.६ ततीय तीर्थंकर श्री संभवनाथ जी से संबंधित श्राविकाएँ : सेना देवी :- इसी जंबूद्वीप में श्रावस्ती नाम की नगरी थी। इस नगरी के राजा इक्ष्वाकु कुल के चंद्र सम महाराजा जितारि की रानी का नाम सेना देवी था।३२ सेनादेवी रूप तथा गुणों से संपन्न थी। किसी समय उसने चौदह शुभ स्वप्न देखे। गर्भ का उचित आहार-विहार और मर्यादा से पालन करते हुए, तीर्थंकर पुत्र को जन्म देने का सौभाग्य प्राप्त किया। जब से प्रभु गर्भ में आए देश में सांब एवं मूंग आदि धान्य प्रचुर मात्रा में उत्पन्न हुए थे। चारों ओर देश की भूमि धान्य से लहलहा उठी थी, अतः माता-पिता ने बालक का सार्थक नाम "संभव' रखा। भावी त्रिलोक वंद्य, आकर्षक, पुत्र छवि को देखकर सेना देवी परम हर्षित हुई। इस उदार हृदय स्त्री ने अपने पति एवं पुत्र को त्याग मार्ग पर सहर्ष विदा किया, तथा संभवनाथ की अनेक पत्नियों को संतुष्ट करते हुए इस सुश्राविका ने कुशल सास होने का प्रमाण उपस्थित किया। २.७ चतुर्थ तीर्थंकर श्री अभिनंदननाथ जी से संबंधित श्राविकाएँ : सिद्धार्था : महारानी सिद्धार्था चतुर्थ तीर्थंकर भगवान् अभिनंदन नाथ जी की माता थी, वह अयोध्या नगरी के महाराजा संवर की महारानी थी। जब से पत्र गर्भ में आया और उनका जन्म हआ. नगर और देश में ही नहीं वरन संपूर्ण विश्व में सख शांति एवं आनंद की लहरें फैल गई। अतः माता-पिता और परिजनों ने मिलकर आपका नाम अभिनंदन रखा। महारानी सिद्धार्था श्रद्धालु श्रमणोपासिका थी। अपने पति एवं पत्र की त्यागमयी वत्तियों को देखकर उसने सहर्ष आज्ञा प्रदान की तथा उनकी अनुपस्थिति में बहुत वर्षों तक कुशलता से पारिवारिक गतिविधियों का संचालन किया। अंत में स्वयं भी दीक्षा अंगीकार की तथा मोक्ष प्राप्त किया। चतुर्थ तीर्थंकर के शासन काल की अन्य श्राविकाएँ के नामोल्लेख तथा विवरण अनुपलब्ध है। २.८ पाँचवे तीर्थंकर श्री सुमतिनाथ जी से संबंधित श्राविकाएँ : २.८.१ सुदर्शना : जंबूद्वीप के पुष्कलावती विजय में शंखपुर नामक नगर था। वहाँ विजयसेन राजा राज्य करते थे। उनकी पट्टमहिषी का नाम सुदर्शना था। एक बार उसने लीलोत्सव में सेठानी सुलक्षणा को आठ पुत्रवधुओं के साथ विचरण करते हुए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003610
Book TitleJain Shravikao ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages748
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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