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________________ जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास देखा। स्वयं को संतान के अभाव में देखकर वह अत्यन्त दुःखी हुई तथा आत्मग्लानि से भर उठी। महाराज विजयसेन ने बेले की तपस्या से कुलदेवी की आराधना की। कुलदेवी ने राजा को आश्वस्त किया कि उन्हें महाप्रतापी पुत्र की प्राप्ति होगी। फलस्वरुप महारानी सुदर्शना ने सिंह का स्वप्न देखा । यथा-समय परम तेजस्वी पुत्ररत्न को जन्म दिया तथा पुरुषसिंह नाम रखा गया। सुदर्शना ने अपने पुत्र को गुणवान् बनाकर समाज को अमूल्य सहयोग दिया।३५ २.८.२ मंगलावती :- इक्ष्वाकुवंश के अयोध्यापति मेघ की महारानी मंगलावती थी।" किसी समय उसने अनमोल चौदह शुभ स्वप्न देखकर यथासमय महिमामयी पुत्ररत्न को पैदा किया तथा बारहवें दिन उनका नामकरण संस्कार रखा जब से बालक गर्भ में आया तब से माता मंगलावती ने बड़ी-बड़ी उलझी हई समस्याओं का भी अनायास ही अपनी सन्मति से हल ढूंढ निकाला, तथा राजा के राजकार्य में सहयोगिनी बनी, अतः बालक का गुण निष्पन्न “सुमति” नाम रखा गया। अपनी इच्छा का त्याग करके पति और पुत्र को त्याग मार्ग पर बढ़ाया, स्वयं भी अंत में दीक्षित हुई, मोक्ष को प्राप्त किया। २.६ छठे तीर्थकर श्री पदमप्रभु जी से संबंधित श्राविकाएँ : २.६.१ सुसीमा : कौशांबी नगरी के महाराजा धर की महारानी का नाम सुसीमा था | महारानी सुसीमा ने चौदह शुभ स्वप्न देखे तथा यथासमय सुखपूर्वक पुत्ररत्न को जन्म दिया। तेजस्वी पुत्र के जन्म के प्रभाव से लोक में सर्वत्र शांति और हर्ष की लहर दौड़ गई। जब बालक गर्भ में आया तब माता को पद्म (कमल) की शय्या में सोने का दोहद उत्पन्न हुआ, तथा बालक के शरीर की प्रभा पद्म के समान थी, अतः बालक का नाम “पद्मप्रभ* रखा गया। अपने पुत्र के प्रति मोह बंधनों का त्याग कर, संसार के कल्याण के लिए उसने तपोमार्ग पर बढ़ने की आज्ञा दी। तथा स्वयं भी अंत में विरक्तिमय जीवन अपनाया। २.१० सातवें तीर्थंकर श्री सुपार्श्वनाथ जी से संबंधित श्राविकाएँ : २.१०.१ पृथ्वीदेवी ४० : इसी जंबूद्वीप के भरत क्षेत्र में वाराणसी नगरी के राजा प्रतिष्ठसेन हुए। राजा प्रतिष्ठसेन की महारानी का नाम पृथ्वीदेवी था, जो सातवें तीर्थंकर श्री सुपार्श्वनाथ जी की माता थी। ४१ महापुरूष सूचक चौदह मंगलकारी स्वप्नों को देखकर हुई और यथासमय सुपार्श्वनाथ को जन्म दिया। जब बालक गर्भ में था तब माता के पार्श्व शोभायमान रहे, अतः उनका नाम 'सुपार्श्व' रखा गया। जब सुपार्श्वनाथ केवलज्ञानी हुए तब माता ने स्वप्न में एक फण, पाँचफण तथा नवफणों वाले सर्प को भगवान् सुपार्श्वनाथ के ऊपर छत्र की तरह देखा। एक तरफ जहाँ माता ने पुत्र के मोह वश उसके कई विवाह किये, वहीं दूसरी तरफ पुत्र की इच्छा को देखते हुए उसे विरक्ति पथ पर भिजवाया। स्वयं भी संसार में जल कमलवत् धर्ममय जीवन व्यतीत किया, अंत में दीक्षित हुई। २.११ आठवें तीर्थंकर श्री चंद्रप्रभु जी से संबंधित श्राविकाएँ : २.११.१ लक्ष्मणा५२ : जंबूद्वीप के भरतक्षेत्र में चन्द्राननपुरी के राजा महासेन की महारानी लक्ष्मणा थी। लक्ष्मणा देवी मंगलकारी चौदह स्वप्न देखकर जागत हुई। राजा से स्वप्न के फल को सुनकर गर्भ का समुचित पालन किया । यथा समय बालक का जन्म हुआ। जब बालक गर्भ में आया तब माता को चंद्रपान की इच्छा हुई तथा बालक के शरीर की प्रभा चंद्र जैसी थी। अतः बालक का गुणनिष्पन्न नाम “चंद्र प्रभ' रखा गया। अपने पुत्र के साधनामय जीवन में सदैव सहायिका बनकर रही। पुत्र को प्रव्रजित कर पुत्रवधूओं के साथ घर में ही साधनामय जीवन व्यतीत किया, अंत में स्वयं भी दीक्षित हुई। २.१२ नौवें तीर्थंकर श्री सुविधिनाथ जी से संबंधित श्राविकाएँ : २.१२.१ रामादेवी : इसी जंबूद्वीप के भरतक्षेत्र में काकंदी नगरी थी, जिसके राजा सुग्रीव थे। महाराजा सुग्रीव की सर्वदोषों से रहित, निर्मल गुणवाली रामादेवी नामक पटरानी थी। किसी समय रामा देवी ने मंगलकारी श्रेष्ठ चौदह सपनों को देखा । अत्यंत प्रफुल्लित हुई और यथासमय सर्वगुणसंपन्न पुत्ररत्न को जन्म देने वाली माता बनी। जब बालक गर्भकाल में था तब माता सब विधियों में कुशल रही, अत: “पुष्पदंत नाम रखा गया ।५ माता ने अपने प्रिय पुत्र को धर्मसंस्कारों से सींचा, समय आने पर उसे प्रव्रजित किया तथा पुत्रवधुओं को संयमित रखा। धर्म साधना में रत रही, अंत में श्री सुविधिनाथ जी के तीर्थ में दीक्षित हुई। माता है For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.003610
Book TitleJain Shravikao ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages748
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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