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जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
ही सिद्ध बुद्ध और मुक्त बनी। तीर्थ स्थापना से पूर्व ही सिद्ध होने से उन्हें अतीर्थसिद्ध एवं स्त्रीलिंग सिद्ध भी कहा है। इस अवसर्पिणी काल में मुक्त होने वाली प्रथम आत्मा माता मरूदेवी थी। भगवान् ऋषभदेव को केवलज्ञान प्राप्त होने के अन्तर्मुहूर्त पश्चात् ही मरूदेवी को मुक्ति प्राप्त हो गई थी । १४
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माँ मरूदेवी वह सन्नारी थी जिसकी ऊँचाईयाँ अपरिमेय हैं। पुत्र के वनगमन के पश्चात् साधु जीवन से अनभिज्ञ सरल हृदयी माता मरूदेवी ने पुत्र ऋषभ का विरह सहन किया है। ऋषभदेव प्रभु को देखकर कई उपालम्भ मोहवश देती रही, लेकिन वाह रे माँ मनस्वी मरूदेवी ! भरत द्वारा ऋषभ के वीतराग स्वरूप का वर्णन करने पर स्वयं पुत्र से पहले ही अपूर्व परिणामों की धारा में बहकर मुक्ति पथ की बाजी जीत ली। ऐसा दूसरा उदाहरण इतिहास में प्राप्त होना दुर्लभ है।
२.४.८ सुमंगला :- सुमंगला महाराज नाभि की पुत्री थी, वह भगवान् ऋषभदेव की युगल बहन थी । वह उनकी बड़ी पत्नी भी थी, तथा प्रथम चक्रवर्ती सम्राट् भरत की माता थी। एक बार सुमंगला रानी तीर्थकरों की माता के समान ही चौदह महास्वप्न देखकर परम प्रसन्न हुई। गर्भकाल पूर्ण हाने पर देवी सुमंगला ने भरत और ब्राह्मी को जन्म दिया तत्पश्चात् उसने ४६ युगल पुत्रों को जन्म दिया । १६ माता ने सुयोग्य चरमशरीरी संतानों को जन्म देकर, धर्म-ध्यान द्वारा जीवन को कृतार्थ किया।
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२.४.६ सुनंदा :- प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव की पत्नी का नाम सुनंदा था। श्री ऋषभदेव का बाल्यकाल आनंद से व्यतीत हुआ। शनैः शनैः वे दस वर्ष के हुए तभी एक अपूर्व घटना घटी। एक युगल अपने नवजात पुत्र-पुत्री को ताड़ के वृक्ष के नीचे सुलाकर स्वयं क्रीड़ा हेतु प्रस्थान कर गया । भवितव्यता से एक बड़ा परिपक्व ताड़फल बालक के ऊपर गिरा । मर्म-प्रदेश पर प्रहार होने से असमय में ही बालक मरकर स्वर्गवासी हो गया। यह प्रथम अकाल मृत्यु इस अवसर्पिणी काल के तृतीय आरे में हुई । यौगलिक माता-पिता ने बड़े लाड प्यार से अपनी इकलौती कन्या का पालन किया, अत्यंत सुंदर होने से "सुनंदा" नाम रख दिया गया। कुछ समय पश्चात् उसके माता-पिता की भी मृत्यु हो गई ।
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इस कारण वह बालिका यूथभ्रष्ट मृगी की तरह इधर उधर परिभ्रमण करने लगी। अन्य यौगलिकों ने नाभि राजा से उक्त समस्त वृत्तान्त कह सुनाया । नाभि ने अपने पास यह कहकर उसे रख लिया कि यह ऋषभ की पत्नी बनेगी। कालांतर में सुनंदा के भ्राता की अकाल मृत्यु से ऋषभदेव ने सुनंदा एवं सहजात सुमंगला के साथ विवाह कर नई व्यवस्था का सूत्रपात किया । " सुनंदा से बाहुबली और सुंदरी का जन्म हुआ। सौंदर्य संपन्न शक्तिसंपन्न बाहुबली एवं अनुपम सौन्दर्य सम्पन्न पुत्री सुंदरी जैसी कन्या को जन्म देनेवाली सुनंदा महासौभाग्यशालिनी ऐतिहासिक श्राविका हो गई। श्रीमद्भागवत् के अनुसार ऋषभदेव की एक पत्नी का नाम जयंति था जो देवराज इंद्र की कन्या थी ।
२.४.१० ब्राह्मी :- ब्राह्मी ऋषभ और सुमंगला की पुत्री थी । प्रभु ऋषभदेव ने ब्राह्मी को संगीत, नृत्य, शिल्प, काव्य, चित्र आदि चौंसठ कलाएँ एवं दाहिने हाथ से अठारह प्रकार की लिपि सिखाई । २° कालांतर में उसने दीक्षित होकर जैन धर्म की प्रभावना की ।
श्री ब्राह्मी का महत्त्वपूर्ण योगदान यह है कि उसने अठारह प्रकार की लिपियाँ स्वयं ग्रहण की तथा धारणा शक्ति से औरों को भी सिखाई उसने चौंसठ कलाओं द्वारा महिलाओं में मंगलमयी प्रवृत्तियाँ जाग्रत की जो समाज निर्माण के लिए बहुत उपयोगी रही। यह कार्य किसी प्रखर प्रतिभा द्वारा ही संपन्न हो सकता है। ब्राह्मी ने लिपि सिखाकर ब्रह्म प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त किया । २१
२.४.११ सुन्दरी :- ऋषभदेव और सुनंदा की सुपुत्री का नाम सुंदरी था । भगवान् ऋषभदेव के प्रथम प्रवचन से प्रभावित होकर वह संयम ग्रहण करना चाहती थी। उसने यह भव्य भावना अभिव्यक्त भी की थी किंतु सम्राट् भरत के द्वारा आज्ञा न दिये जाने से वह प्रभु के संघ की प्रथम श्राविका बनी । २२ उसने श्राविका के व्रतों का आराधन करते हुए साठ हजार वर्ष तक आयंबिल तप किया । २३ अन्त में सुंदरी ने प्रबल भावों से अपनी इच्छा के अनुरुप दीक्षा अंगीकार कर ली । २४
प्रभु ऋषभदेव ने सुंदरी को स्त्रियों की चौंसठ कलाएँ तथा बायें हाथ से गणित, तोल, माप, आदि कलाएँ सिखलाई और मणि आदि के उपयोग करने की विधि सिखलाई २५
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