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पौराणिक/प्रागैतिहासिक काल की जैन श्राविकाएँ
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३ लाख ३ लाख
१लाख
१लाख
१६ भ०. श्री मल्लिनाथ जी. २० भ०. श्री मुनिसुव्रतनाथ जी. २१ भ०. श्री नमिनाथ जी. २२ भ०. श्री नेमिनाथ जी. २३ भ०. श्री पार्श्वनाथ जी. २४ भ०. श्री महावीर जी.
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३ लाख
१ लाख
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२.४ प्रथम तीर्थंकर भ०. श्री ऋषभदेव जी के काल से संबंधित श्राविकाएँ :
२.४.१ चन्द्रकांता :- चन्द्रकान्ता पश्चिम महाविदेह की गंधिलावती विजय में वैताढ्य पर्वत की गंधसमद्धि नगर के विद्याधर राजा शतबल की पत्नी थी जिसके पुत्र का नाम था महाबल, पुत्रवधू का नाम था विनयवती।
२.४.२ नागश्री :- नागश्री विदेह क्षेत्र के नंदीग्राम निवासी नागिल की पत्नी थी, जिसकी सातवीं पुत्री का नाम निर्नामिका था।
२.४.३ निर्नामिका :- निर्नामिका नागश्री ओर नागिल की पुत्री थी, अपनी माता नागश्री द्वारा अम्बरतिलक पर्वत पर भिजवाने पर वह मुनिराज के केवल ज्ञान महोत्सव में सम्मिलित हुई । मुनि से धर्मोपदेश श्रवण किया तथा सम्यक्त्व सहित पाँच अणुव्रतों को स्वीकार किया। श्राविका व्रतों का सम्यक् आराधन किया। कुरूपता और दुर्भाग्य के कारण वह जीवन पर्यन्त अविवाहित कुमारिका रही, उसने विविध प्रकार के तप किये, अंत में अनशन पूर्वक समाधिमरण को प्राप्त किया।
२.४.४ लक्ष्मी :- लक्ष्मी पुष्कलावती विजय के लोहार्गल नगर निवासी स्वर्णजंघ की पत्नी थी। पुत्र का नाम वज्रजंघ था।
२.४.५ श्रीमती :- श्रीमती पुष्कलावती विजय की पुण्डरिकिणी नगर निवासी चक्रवर्ती राजा एवं गुणवती रानी की पुत्री थी।" ईशानचन्द्र नरेश की रानी कनकावती, सुनाशीर की पत्नी लक्ष्मी, सार्थवाह पत्नी अभयमति, धनश्रेष्ठी की पत्नी श्रीमती ये चारों जंबूद्वीप के क्षितिप्रतिष्ठित नगर की निवासिनी थी।
२.४.६ प्रियदर्शना :- प्रियदर्शना धनाढ्य श्रेष्ठी पूर्णभद्र की सुपुत्री एवं श्रेष्ठी सागर चन्द्र की पत्नी थी। सागरचन्द्र के मित्र अशोकदत्त ने पति पत्नी के मध्य में वैमनस्य पैदा करने की चेष्टा की किंतु प्रियदर्शना ने अपने प्रति आकर्षित अशोकदत्त को फटकारा । स्वयं शांति रखकर अपना पातिव्रत्य निभाया। उसके अनंतर प्रथम कुलकर विमलवाहन की पुत्री सुरूपा थी, जो तृतीय कुलकर यशस्वी की पत्नी थी तथा उसकी पुत्री प्रतिरूपा चतुर्थ कुलकर अभिचन्द्र की पत्नी थी। उसकी पुत्री चक्षुकांता पांचवें कुलकर प्रसेनजित की पत्नी थी तथा उसकी पुत्री श्रीकांता छठे कुलकर मरूदेव की पत्नी थी। उसकी पुत्री मरुदेवी सातवे कुलकर नाभि की पत्नी थी।१०
२.४.७ माता मरूदेवी : इस अवसर्पिणीकाल के तीसरे आरे में जंबूद्वीप के भारतवर्ष में इक्ष्वाकुभूमि मे नाभि कुलकर की पत्नी का नाम मरूदेवी था।" माता मरूदेवी ने चौदह स्वप्न देखकर प्रथम तीर्थंकर प्रभु ऋषभदेव को जन्म दिया। ऋषभदेव ने राज्य व्यवस्था, समाज-व्यवस्था आदि कार्य संपन्न किये तथा अवसर्पिणीकाल के प्रथम साधु बने । एक हजार वर्षों के बाद पुरिमताल नगर के बाहर शकट मुख नामक उद्यान में केवल ज्ञान को प्राप्त हुए।१२ वात्सल्यमूर्ति मरूदेवी ने एक हजार वर्षों से अपने पुत्र का मुँह नहीं देखा था। उसने भरत से ऋषभदेव विषयक खोज करने के लिए कहा। भरत ने भगवान् के पुरिमताल नगर के बाहर स्थित उद्यान में पधारने का सुखद संदेश मरूदेवी को सुनाया। मरूदेवी और भरत तुरन्त सुसज्जित हस्तिरथ पर आरूढ़ होकर भगवान् के समोसरण द्वार पर पहुँचे । प्रभु ऋषभदेव को अनासक्त देखकर मरूदेवी पहले आर्तध्यान करने लगी, तत्पश्चात् मोह का आवरण दूर होते ही धर्मध्यान शुक्लध्यान में आरूढ़ हुई तथा केवल ज्ञान, केवल दर्शन को प्राप्त कर गई । आयु पूर्ण होने से हस्तिरत्न प
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