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जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
२.१८.६ कनकश्री :- कनकश्री प्रतिवासुदेव दमितारि की पुत्री थी । वह परम सुंदरी एवं गुणवान् थी। शुभा नगरी के महाप्रतापी राजा अनन्तवीर्य 'वासुदेव' की पत्नी थी। केवल ज्ञानी मुनिराज से यह सुनकर कि धर्म में संदेह(शंका करने) तथा मोहोदय के कारण वह स्त्री बनी है, वह संसार से विरक्त हुई। उसने केवली भगवान् स्वयंभव स्वामी से दीक्षा अंगीकार की।८७ भवितव्यता अद्भुत है। प्रतिवासुदेव की पुत्री वासुदेव की पत्नी बनी थी।
२.१८.७ जयंतिप्प :- वाराणसी नगरी में महाराजा अग्नि सिंह राज्य करते थे। उनकी महारानी का नाम जयंति था जिनकी कक्षी से सातवें बलदेव नंदन का जन्म हुआ। माता ने चार शुभ स्वप्न देखें फल स्वरूप महापुण्यवान बालक उत्त्पन्न हुआ। सबके लिए यह बालक अत्यन्त रमणीय था जयंति के धर्मसंस्कारों का ही पुण्य प्रभाव था कि "बलदेव नन्दन" विपुल भोगों का परित्याग कर चारित्र अंगीकार कर सिद्ध बुद्ध मुक्त हुए।
२.१८.८ शेषवती :- वाराणसी नगरी के महाराजा अग्निसिंह की महारानी का नाम था "शेषवती" जिनकी कुक्षी से सातवें वासुदेव 'दत्त' का जन्म हुआ था। माता ने वासुदेव सूचक सात स्वप्न देखे, यथा समय पुत्र जन्म के पश्चात् नाम रखा गया दत्तकुमार। तेजस्वी सम्यक्त्वी यशस्वी वासुदेव जैसे पुत्र को पैदा करने का सौभाग्य किन्ही पुण्यवान माताओं को ही प्राप्त होता है।
२.१८.६ चुलनी२ :- कांपिल्य नगर के पांचालपति ब्रह्म की महारानी थी चुलनी। चुलनी ने किसी समय चक्रवर्ती जन्म के सूचक चौदह शुभ स्वप्न देखे । यथा समय महारानी ने तपाये हुए सोने के समान कांतिवाले परम तेजस्वी पुत्ररत्न को जन्म दिया।३ इस सुन्दर तेजस्वी पुत्र का मुख देखते ही ब्रह्म में रमण (आत्मरमण) के समान परम आनंद की अनुभूति हुई, अतः बालक का नाम "ब्रह्मदत्त' रखा गया।
माताओं का ही पुण्य प्रभाव था जो शक्ति एवं समृद्धिशाली सोलहवें तीर्थंकर श्री शांतिनाथ जी सत्तरहवें तीर्थंकर श्री कुंथुनाथ जी तथा अठारहवें तीर्थंकर श्री अरहनाथ जी पैदा हुए। ये तीनों एक भव में ही चक्रवर्ती बनकर तीर्थंकर बने थे। इनकी माताओं का परिचय तीर्थंकर की माताओं के रुप में लिखा है। २.१६ सोलहवें तीर्थंकर श्री शांतिनाथ जी से संबंधित श्राविकाएँ :
२.१६.१ अचिरादेवी४ :- हस्तिनापुर के महाराजा विश्वसेन थे। उनकी महारानी अचिरादेवी ने सोलहवें तीर्थंकर तथा चक्रवर्ती पदवी धारी पुत्र श्री शांतिनाथ भगवान् को जन्म देने का सौभाग्य प्राप्त किया था।५ माता ने चतुर्दश स्वप्न देखे। कालांतर में एक पुत्ररत्न को जन्म दिया। श्री शांतिनाथ भगवान् के जन्म से पूर्व हस्तिनापुर में महामारी का भयंकर प्रकोप चल रहा था। प्रजा तथा राजा-रानी सभी चिंतित थे। माता अचिरादेवी के गर्भ में प्रभु के अवतरण से महामारी का भयंकर प्रकोप शांत हो गया। अतः नामकरण संस्कार के समय आपका नाम "शांतिनाथ' रखा गया । रोग दूर होने से चारों ओर शांति हो गई, खुशहाली छा गई। इस महिमामयी माता ने अपने पुत्र को त्यागमार्ग की ओर बढ़ाया, पुत्रवधुओं को सान्त्वना दी तथा उसने श्राविका व्रतों की आराधना की तथा देवलोक में उत्पन्न हुई।
२.१६.२ सत्यभामा :- श्री शांतिनाथ भगवान् के शासनकाल में मगध देश के अचलग्राम में "धरणीजट' ब्राह्मण एवं उनकी पत्नी यशोभद्रा निवास करते थे। उनके यहाँ "कपिला' नाम की दासी थी। उसके एक पुत्र था “कपिल । कपिल वेद वेदांगों का ज्ञाता था। उसकी विद्वत्तता से प्रभावित होकर रत्नपुर के महापंडित सत्यकी ने अपनी उत्तम गुणोंवाली सर्वांगसुंदरी पुत्री "सत्यभामा उसे प्रदान कर दी। एक बार किन्हीं कारणों से सत्यभामा ने जान लिया कि उसका पति नीच कुल का पैदा हुआ प्रतीत होता है। अपने ससुर धरणीजट से उसने सत्य बात का पता कर लिया तथा स्वयं महाराजा श्रीसेन से न्याय मांगने गई। राजा ने सत्यभामा को कपिल से मुक्त करने के लिए एक मार्ग निकाला वह यह था कि सत्यभामा महारानी के पास रहकर तपोमय जीवन व्यतीत करेगी। अंत में विषैले कमल को सूंघ कर वह मृत्यु को प्राप्त हो गई। ६७ सत्यभामा को एकाकी रहना पसंद था किंतु गुणहीन के साथ वह रहना पसंद नहीं करती थी।
२.१६.३ स्वयंप्रभा :- विद्याधर राजा ज्वलनजटिन की पुत्री थी स्वयंप्रभा तथा प्रथम वासुदेव त्रिपृष्ठ की महारानी थी। स्वयंप्रभा की माता का नाम वायुवेगा था । स्वयंप्रभा आकर्षक, मनोहर और परम संदरी थी। उसके सौंदर्य के आगे देवांगना का सौंदर्य
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