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________________ 116 पौराणिक/प्रागैतिहासिक काल की जैन श्राविकाएँ भी फीका लगता था। ग्यारहवें तीर्थंकर श्री श्रेयांसनाथ भगवान् के शासनकाल में त्रिखण्डाधिपति वासुदेव एवं त्रिपृष्ठ को स्वयंप्रभा रूप हीरा ज्वलनजटिन ने समर्पित किया था। स्वयं प्रभा का मनोहर चित्ताकर्षक रूप एवं पुण्यों का फल था कि वह त्रिपृष्ठ वासुदेव की महारानी बनी। उसके दो पुत्र पैदा हुए जिनके नाम थे "श्री विजय” और “विजय भद्र" और एक पुत्री थी ज्योतिप्रभा । ज्योतिप्रभा का विवाह अर्ककीर्ति के पुत्र अमिततेज से हुआ।०० कालांतर में स्वयंप्रभा प्रव्रजित हुई। स्वयंप्रभा जिन धर्मानुयायिनी श्राविका थी, सद्गुणों से मंडित थी। २.१६.४ ज्योतिर्माला :- ज्योतिर्माला प्रभंकर नगरी के पराक्रमी महाराजा मेघवाहन की सुपुत्री थी। उसके भाई का नाम "विद्युतप्रभ था। ज्योतिर्माला देवकन्या सदृश अनन्य सौंदर्यशालिनी थी। १०१ रथनूपुर चक्रवाल नगर के राजा ज्वलनजटी के सुपुत्र वीर पराक्रमी युवराज अर्ककीर्ति के साथ उसका विवाह हुआ। युवराज अर्ककीर्ति एवं ज्योतिर्माला की कुक्षी से सुतारा नाम की कन्या पैदा हुई सुतारा का विवाह स्वयं प्रभा के पुत्र श्री विजय के साथ हुआ था ०२ ज्योतिर्माला स्वयं धर्म संस्कारों से ओत प्रोत थी उसने अपने पुत्र अमिततेज को भी धर्म संस्कारों से सिंचित किया था। २.१६.५ सुमति :- "सुमति' बलदेव श्री अपराजित जी की पुत्री थी। वह बचपन से ही धर्मरसिक थी। वह जीवादि तत्वों की ज्ञाता थी, वह विविध प्रकार के तप तथा व्रत भी करती रहती थी। एक बार उपवास के पारणे में सुपात्रदान की भावना से द्वार की ओर उसने देखा। सुयोग से तपस्वी मुनिराज का घर में प्रवेश हुआ। चित्त, वित्त और पात्र की शुद्धता से वहाँ पाँच दिव्य की वृष्टि हुई। बलदेव और वासुदेव ने वहाँ पहुँचकर सुपात्रदान की अद्भुत महिमा का प्रत्यक्ष फल देखा। उनके मन में राजकुमारी सुमति के प्रति आदर का भाव पैदा हुआ। सुमति के सुयोग्य वर प्राप्ति के लिए उन्होंने स्वयंवर का आयोजन किया। वरमाला हाथ में लेकर वह आगे बढ़ रही थी, कि अचानक उस सभा के मध्य में एक देवविमान आया, उसमें से एक देवी निकली सिंहासन पर बैठी और उसने राजकुमारी को प्रतिबोध दिया। उसे जातिस्मरण ज्ञान प्रकट हुआ, और वह मूर्छित होगई। सावधान होने पर उसने दीक्षा लेने की आज्ञा मांगी। दीक्षा लेकर कालांतर में मुक्त हुई।१०३ सुमति ने पूर्वभव के शुभ संस्कारों की परंपरा के परिणाम स्वरुप वर्तमान जीवन को भी धर्ममय बनाकर सफल बनाया। धर्म प्रभावाना में इनका महत्वपूर्ण योगदान है। २.१६.६ श्रीकांता :- भगवान शांतिनाथ के शासन में कौशांबी नगरी के राजा बल की पुत्री थी श्रीकांता । युवावस्था में पदार्पण होने पर योग्य वर की इच्छा से पिता ने स्वयंवर की रचना की थी।१०४ इससे आगे का कोई विवरण श्रीकांता के विषय में उपलब्ध नहीं होता है। २.१६.७ अनन्तमति :- अनन्तमति एक गणिका थी, जिसकी अनुपम सुंदरता से आकर्षित होकर श्रीसेन के पुत्र इंद्रसेन एवं बिंदुसेन दोनों भाइयों ने आपस में युद्ध छेड़ दिया। एक विद्याधर ने उन दोनों के सामने अनंतमति के पूर्वभव का रहस्य प्रकट किया। अनंतमति पूर्वभव में साध्वी थी।१०५ विशेष विवरण उपलब्ध नहीं होता। २.१६.८ कनक श्री :- कनक श्री पुष्करवर द्वीप की सलिलावती विजय में वीतशोका नगरी के राजा रत्नध्वज की रानी थी। कनकश्री की दो पुत्रियां थी, जिनका नाम कनकलता और 'पद्मलता था।१०६ विशेष विवरण उपलब्ध नहीं होता। २.१६.६ हेमामालिनी :- यह भी पुष्करवर द्वीप की सलिलावती विजय में वीतशोका नगरी के राजा रत्नध्वज की रानी थी। हेमामालिनी की एक कन्या थी, जिसका नाम 'पद्मा" था। विशेष विवरण उपलब्ध नहीं होता। २.१६.१० अभिनंदिता :- भरतक्षेत्र में रत्नपुर नगरी के राजा श्रीसेन की रानी थी। उनके दो पुत्र थे इंदुसेन और बिंदुसेन. विशेष विवरण उपलब्ध नहीं होता | २.१६.११ शिखानंदिता :- भरतक्षेत्र में रत्नपुर नगरी के राजा श्रीसेन की रानी थी। विशेष विवरण अनुपलब्ध है। २.१६.१२ यशोभद्रा :- मगधदेश के अचल ग्राम में धरणीजट ब्राह्मण की पत्नी थी। उसके शिवभूति और नंदीभूति नाम के दो पुत्र थे।१० विशेष विवरण अनुपलब्ध है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003610
Book TitleJain Shravikao ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages748
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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