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ऐतिहासिक काल की जैन श्राविकाएँ
की खीर) से पारणा करवाया। संगमदेव ने भगवान् महावीर को छ: माह तक जो उपसर्ग दिया था, उस उपसर्ग की दीर्घकालिक तपस्या का यह पारणा था। ग्वालिन वत्सपालिका का दारिद्रय सदा के लिए मिट गया। वह महावीर की भक्त बन गई।११८ मुनियों को आहार से प्रतिलाभित करने की पवित्रता के फलस्वरूप वत्सपालिका ने दान का परम फल प्राप्त किया, एक आदर्श उपस्थित किया।
३.७.४२ महारानी पद्मावती जी : पद्मावती तेतलीपुर नगर के राजा कनकरथ की रानी थी। पद्मावती जिन धर्म की उपासिका धर्मपरायणा नारी थी। वह चाहती थी कि कनक रथ भी धर्म मार्ग पर अग्रसर हो। किन्तु राजा कनकरथ अपने राज्य तथा भौतिक ऐश्वर्य में इतने आसक्त थे कि वे उसे रंचमात्र भी छोड़ना नहीं चाहते थे। उनकी सतत् चिंता बनी रहती थी कि यदि पुत्र का जन्म होगा तब वह राजा बन जाएगा । अतः इस आंतरिक भय के कारण जो भी पुत्र रानी पद्मावती को पैदा होता राजा उसे विकलांग कर देता तथा संतुष्ट होता था। क्योंकि उस समय की व्यवस्था के अनुसार विकलांग (खंडित) व्यक्ति राज्य का अधिकारी नहीं हो सकता था। महारानी पद्मावती को इससे बड़ा कष्ट होता था। पुत्र वात्सल्यवश वह चिंतातुर हुई तथा होने वाले शिशु की सुरक्षा के लिए अपने विश्वासपात्र अमात्य तेतलीपुत्र से इस विषय में चर्चा की अमात्य तेतलीपुत्र ने आश्वासन दिया कि राजपुत्र को सुरक्षित स्थान पर रखा जाएगा।
गर्भवती रानी ने जब पत्र को जन्म दिया तब उसे विश्वासपात्र धायगाता के साथ उस नवजात शिश को अमात्य तेत के यहाँ पहुँचा दिया। तथा तेतलीपुत्र की मत कन्या को लाकर रानी के पास सुला दिया। पत्नी पोट्टिला को इस बात का पहले ही पता दे दिया गया था। पोट्टिला भी आनंदित होकर राजपुत्र का पालन पोषण करने लगी। धायमाता ने राजा को संदेश दिया की रानी ने मत कन्या को जन्म दिया। अमात्य ने बालक का नाम कनकध्वज रखा क्योंकि वह कनकरथ का पुत्र था। कुछ समय बाद राजा कनकरथ की मत्यु हो गई। अनुकूल अवसर जानकर अमात्य ने नगर के लोगों के समक्ष यह भेद खोला और लोगों को विश्वास दिलाया कि यह पुत्र कनकरथ राजा एवं रानी पद्मावती का आत्मज है। १६ पदमावती रानी की दूरदर्शिता का परिणाम था कि उसने राजकुमार को जीवित रखा एवं उसे एक योग्य राजा बनाया, यह उसका महत्वपूर्ण योगदान है।
३.७.४३ सुश्राविका शिवानंदा जी : भगवान् महावीर के शासनकाल में वाणिज्य ग्राम में प्रभु का प्रमुख उपासक आनंद रहता था, जिसकी पत्नी का नाम शिवानंदा था। शिवानंदा शुभ लक्षणों वाली, गुणसंपन्न सन्नारी थी। एक बार प्रभु महावीर के उपदेशों को सुनकर आनन्द ने श्रावक के बारह व्रत ग्रहण किये घर आकर अपनी पत्नी शिवानंदा को भी कल्याणकारी व्रतों को धारण कर आने की प्रेरणा की। शिवानंदा पति के वचन का आदर करती हुई प्रभु का उपदेश सुनने गई तथा व्रतधारिणी श्रमणोपासिका बन गई। आनंद श्रावक ने जीवन की संध्या में अनशन ग्रहण किया। शिवानंदा ने पूर्ण सहयोगी बन पति के कर्तव्यों को वहन किया। वह एक आदर्श गहिणी और श्रमणोपासिका बनी। १२० उसने स्वयं व्रतों का पालन किया तथा पति के अनशन व्रत की समाधि में पर्ण सहयोगिनी बनकर महान योगदान दिया।
३.७.४४ माता भद्रा जी : वाराणसी के श्रावक चुलनी पिता की माता थी। एक बार श्रावक व्रतों से डिगाने के लिए चुलनी पिता के सामने देव ने कहा-चुलनी पिता! यदि तू धर्म की हठ नहीं छोड़ेगा तो तेरी देव-गुरु के समान पूज्यनीय तेरी माता को मारूंगा। इस प्रकार का दूसरी तीसरी बार कथन सुनकर, चुलनी पिता उसके कार्य को रोकने के लिए उसकी ओर झपटा, तो उसके हाथ में एक खंभा आ गया। देव लुप्त हो चुका था। पुत्र का चिल्लाना सुनकर माता भद्रा ने समीप आकर पुत्र से कारण पूछा। पुत्र ने माता को सारी घटना सुनाई। माता समझ गई, उसने पुत्र को समझाया-"पुत्र" | किसी मिथ्यात्वी देव से तुम्हें उपसर्ग हुआ है। तुम आश्वस्त होकर अपने नियम रूप पौषध की आलोचना करके शुद्ध हो जाओ। माता से प्रेरित किये जाने पर चुलनी पिता ने प्रायश्चित कर आलोचना की। अनशन किया और सौधर्म स्वर्ग में देव बने ।१२१ मां का पुत्र की धार्मिक स्थिरता में सहयोग का यह सुन्दर आदर्श और अवदान है।
___३.७.४५ श्राविका बहुला जी२१ : आलंभिका नगरी के गाथापति चुल्लशतक की पत्नी थी। वह समद्धिशालिनि थी। भगवान् महावीर से धर्मदेशना सुनकर दोनों श्रमणोपासक धर्म में दीक्षित हुए। एक बार चुल्लशतक श्रावक को देव उपसर्ग हुआ (पुत्रों के
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