________________
136
पौराणिक/प्रागैतिहासिक काल की जैन श्राविकाएँ
२.२५.६५ सुलसा :- सुलसा भदिदलपुर नगरी के नाग गाथापति की पत्नी थी। वह शुभ लक्षणों एवं गुणों से संपन्न थी। जब वह बाल्यावस्था में थी तब निमित्तज्ञ ने उसे मृतवत्सा घोषित कर दिया था तभी से वह हरिणैगमेषी देव की भक्त बन गई। उसकी निरन्तर की गई भक्ति के प्रभाव से देव प्रसन्न हुआ। उसने देवकी के गर्भ को सुलसा के गर्भ में तथा सुलसा के मत पुत्रों को देवकी के गर्भ में स्थानांतरित किया। इस प्रकार सुलसा ने एक समान रूप, वय, कांति से संपन्न अनीकसेन, अनंतसेन, अनहितरिपु, देवसेन अजितसेन और शत्रुसेन आदि छ: पुत्रों का पालन पोषण किया एवं पुत्रवती होने का सौभाग्य प्राप्त किया।६५
२.२५.६६ नागश्री :- नागश्री चंपानगरी के ब्राह्मण सोमदेव की पत्नी थी। एक बार प्रीतिभोज में उसने कई मीठे और नमकीन व्यंजन बनाए; साथ में उसने घत मसाला आदि डालकर लौकी की सब्जी बनाई। चखने पर वह कड़वी निकली। एक मासखमण के तप धारी मुनिराज आहार लेने उसके घर पधारे। उसने कड़वे तुंबे की सारी सब्जी मुनि के पात्र में डाल दी। मुनि ने गुरू को वह सब्जी दिखाई गुरू ने उसे खाने के अयोग्य जानकर उसे परठने (फेंकने) के लिए मुनि को भेजा। लाखों चीटियों के विनाश की आशंका से करूणा शील मुनि ने अपने उदर में वह शाक डाल लिया अर्थात् खा लिया जिससे वे मत्यु को प्राप्त हुए। नागश्री को मुनि हत्या के अपराध के कारण घर से निकाल दिया। नगर के लोगों ने उसे दुत्कारा। नागश्री मरकर छठी नरक में उत्पन्न हई। तत्पश्चात मत्स्य योनि प्राप्त की, सातवीं नरक में दो बार गई तथा अनेक योनियों में परिभ्रमण करते हुए सुकुमालिका बनी। तत्पश्चात् निदान करके द्रौपदी बनी ।३६६
२.२५.६७ द्रौपदी :- द्रौपदी पांचाल देश के महाराजा द्रुपद की कन्या थी, पांडवों की पत्नी थी। तथा धष्टद्युम्न, एवं शिखण्डी की बहन थी। द्रौपदी के स्वयंवर का आयोजन रखा गया । द्रौपदी ने अर्जुन के गले में वरमाला डाली। दैव योग से पांचों पाण्डवों के गले में वरमाला दिखाई दी। राजा द्रुपद चिंतित हुए पांचों को पुत्री कैसे दी जाए? अचानक उसी समय चारण मुनि उपस्थित हुए। कृष्ण आदि राजाओं ने इस विषय पर चारण मुनि से चर्चा की। चारण मुनि ने बताया द्रौपदी पूर्वभव में सागरदत्त सार्थवाह की पुत्री थी साध्वी सुकुमालिका श्री के भव में देवदत्ता वेश्या को निर्जन स्थान पर पांच पुरूषों द्वारा सेवा कराते हुए देखा था। तब सुकुमालिका ने निदान किया था कि मेरे तप संयम के प्रभाव से मै भी पांच पतियों का वरण करूं । अतः निदान के परिणाम स्वरूप ऐसा घटित हुआ है। राजा द्रुपद ने निःशंक होकर पांच पांडवों के संग उसका विवाह कर दिया। द्रौपदी को जीवन में कई बार कठोर संघर्षों से गुजरना पड़ा। जैसे दुश्शासन द्वारा चीर हरण, अमरकंका के राजा पद्मनाभ के भवन में अपहरण कर ले जाना, अज्ञातवास में कीचक द्वारा कामोत्तेजक होना आदि। इन सभी परिस्थितियों का अपने शील की दढ़ता एवं शासन देव की कपा से उसने डटकर मुकाबला किया। अंत में सर्वाधिक कठिन परिस्थिति थी एक साथ पाँचों प्रिय पुत्रों की हत्या। उसने ऐसी स्थिति में भी शांति एवं सहिष्णुता का परिचय दिया। अंत में विरक्तमन से वह दीक्षित हुई। द्रौपदी के पातिव्रत्य से सत्यभामा प्रभावित थी।उसे घोर आश्चर्य था कि पाँचों पतिदेवों को द्रौपदी कैसे इतना प्रसन्न रख पाती है? द्रौपदी स्वाभिमानी सन्नारी थी। उसे अपने अपमान का बड़ा क्षोभ था। उसने पांडवों को शिथिल हो जाने होने पर अपने बिखरे केशों एवं चीर हरण की स्मति दिलाकर उनके क्षत्रियत्व को जगाया उसने घोर विपत्ति के समय पांडवों को समय के अनुकूल सलाह दी ३६७
२.२५.६८ कुन्ती :- कुंती शौरीपुर के यदुवंशी राजा अंधकवृष्णि की पुत्री तथा राजा पाण्डु की पत्नी थी। विवाह से पूर्व ही देवांगना सी सुंदर कुंती से आकर्षित होकर पाण्डु ने उसके मना करने पर भी गंधर्व विवाह किया तथा उसके साथ काम सेवन किया जिससे कुंती ने कर्ण को जन्म दिया। लोक लाज के भय से पुत्र को संदूक में रखकर उसे नदी में प्रवाहित कर दिया जो एक रथिक के हाथ लगा। रथिक ने कर्ण का पालन पोषण किया। कालांतर में कुंती और पांडु का विधिवत् विवाह संपन्न हुआ। कुंती ने अति प्रभावशाली स्वप्न देखकर युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन को यथा समय जन्म दिया तथा तीनों के जन्म के समय आकाशवाणी से ही उनके चरम शरीरी होने का संकेत प्राप्त किया। कुंती ने अपने तीनों पुत्रों के साथ ही साध्वी बनी हुई बहन माद्री के दोनों पुत्रों नकुल और सहदेव को भी सुसंस्कारित किया। पति पाण्डु और बहन माद्री के दीक्षित होने के पश्चात् उसने पारिवारिक दायित्वों को बखूबी निभाया। युद्ध स्थगित करने हेतु भी प्रयत्नशील रही। अपने पुत्रों के साथ वनवास का समय उसने धैर्य विवेक एवं समता से व्यतीत किया। पांडवों के हर घटनाचक्र के साथ कुंती जुड़ी हुई थी।६८
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org