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________________ जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास सम्बन्धर से प्रतिस्पर्धा में जैन श्रमणों के पराजित हो जाने पर सुंदर पाण्ड्य जैन धर्म का परित्याग कर शैव बन गया और उसने स्पर्धा की शर्त के अनुसार पराजित पाँच हजार जैन श्रमणों को फांसी के फंदों पर लटका दिया। इस दुर्भाग्यशालिनी घटना को इतिहास के अनेक विद्वानों ने न केवल काल्पनिक किंतु ऐतिहासिक तथ्य के अंतर्गत माना है। मदुरै के मीनाक्षी मंदिर की भित्तियों पर भित्तिचित्रों में श्रमण संहार की इस घटना को चित्रित किया गया है। पाण्ड्य राजवंश द्वारा जैन धर्म के स्थान पर शैवधर्म स्वीकार कर लिये जाने के पश्चात् चोलराजवंश ने भी शैव धर्म अंगीकार कर जैन धर्मानुयायियों पर अत्याचार करना प्रारंभ कर दिया। उसके पश्चात् बसवा, एकांतद रमैया एवं रामानुजाचार्य द्वारा दक्षिणापथ में क्रमशः शैव एवं वैष्णव (रामानुज) संप्रदाय के फैलने पर सामूहिक लूट-खसोट, हत्या एवं बलपूर्वक धर्म परिवर्तन जैनों पर किये गये। परिणामस्वरूप जो आंध्रप्रदेश शताब्दियों से जैनों का मुख्य गढ़ था वहाँ से जैनों का अस्तित्व ही मिट गया। तमिलनाडु में भी शताब्दियों से बहुसंख्यक के रूप में माने जाते रहे जैन धर्मावलम्बी अतीव स्वल्प अथवा नगण्य संख्या में ही अवशिष्ट रह गये। इस प्रकार के संक्रांतिकाल में भी जैन धर्म की रक्षा करने में, जैन धर्म को एक सम्मानास्पद धर्म के रूप में बनाये रखने में प्रमुख राजवंशों का एवं उनके द्वारा जैन धर्म के अभ्युदय उत्कर्ष के लिए किये गये कार्यों का एवं जैन श्राविकाओं का सामाजिक, धार्मिक योगदान का वर्णन इसमें उल्लिखित है| भारत गौरव मध्यकालीन हिंदु साम्राज्य के संस्थापक संगम नामक एक छोटे से यदुवंशी राजपूत सरदार के पाँच वीर पुत्र ता प्रेमी. वीर. साहसी और महत्वाकांक्षी थे तथा अंतिम होयसल नरेश वीर बल्लाल ततीय की सीमांत चौकियों के रक्षक थे। १३३६ ई. में अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित करने में वे सफल हुए। हरिहर राय प्रथम (१३४६-६५) विजयनगर राज्य का प्रथम अभिषिक्त राजा बना। १७ वीं शती के अंत तक इनका राज्य चला। विजयनगर के राजाओं का कुलधर्म एवं राज्यधर्म हिंदु था, किंतु प्रजा का बहुभाग जैन था। उसके अतिरिक्त श्री वैष्णव, लिंगायत व कुछ सदाशैव थे। राजा लोग सभी धर्मों के प्रति सहिष्णु, समदर्शी और उदार थे। जैन धर्म को उनसे प्रभूत संरक्षण एवं पोषण प्राप्त हुआ। राजधानी विजयनगर (हम्पी, प्राचीन पंपा) के वर्तमान खंडहरों में वहाँ के जैनमंदिर ही सर्वप्राचीन हैं। जिसमें विजयनगर की स्थापना से पूर्व भी अनेक जैनमंदिर विद्यमान थें । कला और शिल्प की दष्टि से भी विजयनगर के जैनमंदिर अत्युत्तम है। विजयनगर साम्राज्य युग ने इतिहास को अनेक उल्लेखनीय जैन विभूतियाँ भी प्रदान की। हरिहर प्रथम की पत्नी ने हिरेआवलि में पंच नमस्कार महोत्सव किया था । १३५४ ई. में वीर-हरियप्प ओडेयर के राज्य में मालगौड़ की भार्या चेन्नके ने सन्यासविधि से मत्यु को प्राप्त किया था । इस काल के प्रमुख जैन विद्वान् वादीसिंहकीर्ति मंगरस और भट्टारक धर्मभूषण थे। ४० हरिहर प्रथम के पुत्र बुक्काराय प्रथम के राज्यकाल में ई. १३७१ में बिट्टलगौड की सुपुत्री, ब्रह्म की पत्नी लक्ष्मी-बोम्मक्क ने समाधिमरण किया था । हरिहर द्वितीय (१३७७–१४०४ ई.) के राज्य में कूचिराज एवं अन्य जैन मंत्री एवं राजपुरूष भी थे । इनके राज्य में जैनधर्म खूब फला-फूला । महारानी बुक्कवे परम जिनभक्त थी, उसने ई. १३६७ में कुंथुनाथ जिनालय के लिए दान दिया था । इन्हीं के राज्यकाल में विजय कीर्तिदेव की शिष्या कोंगाल्ववंश की रानी सुगुणिदेवी ने १३६१ ई. में अपनी जननी पोचब्बरसि के पुण्यार्थ जिन प्रतिमा प्रतिष्ठित करवाई तथा दान दिया था । १३६५ ई. में एक प्रतिष्ठित महिला कानरामण की सती पत्नी कामी-गोडि ने समाधिमरण किया था । राजा हरिहर द्वितीय ने कनकगिरि, मूडबिद्रि आदि की अनेक जैन-बसदियों को स्वयं भी उदार भूमिदान दिये थे । उसका राजकवि मधुर भी जैन था, जो "भूनाथस्थान चूड़ामणि" कहलाता था तथा धर्मनाथपुराण, एवं "गोम्मटाष्टक" का रचयिता था । ई. १४०५ में बय्यिराज की सुपुत्री मेचक ने समाधि-मरण किया था। देवराय प्रथम (१४०६-१० ई.) की महारानी भीमादेवी परम जिनभक्त थी। उसने १४१० ई. में मंगायि बसदि का जीर्णोद्धार कराया था। रानी भीमादेवी के साथ ही पण्डिताचार्य की अन्य शिष्या बसतायि ने वर्धमान स्वामी की प्रतिमा प्रतिष्ठित कराई थी । अयप्प गौड की पत्नी कालि-गौडि ने १४१७ ई. में समाधिमरण किया था तथा १४१६ ई. में गेरूसोप्पे की श्रीमती अब्वे ने तथा उसके साथ समस्त गोष्ठी ने धर्मकार्यों के लिए श्रवणबेलगोल में दान दिये थे। इसी प्रकार देवराय द्वितीय (१४१६-४६ ई.) जैन मंत्री बैचप दण्डाधिनायक, दण्ड नाथ मंगय की भार्या जानकी शीलगुणमंडिता जिनभक्त थी। राजकुमारी देवमति भी इसी काल में हुई थी । गोपचमूप, गोपमहाप्रभु, बाचायि पुत्र मायण्ण, गोपगौड, कम्पन गौड़ और नागण्ण वोडेयर, राजा कुलशेखर आलुपेंद्र देव, वीर पाण्ड्य भैररस आदि पंद्रहवी शताब्दी के जैनधर्म प्रभावक व्यक्तित्व थे।४२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003610
Book TitleJain Shravikao ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages748
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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