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________________ 232 आठवीं से पंद्रहवीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ उच्च कोटि के ग्रंथों में उदाहरण के लिए कुरूल और नालडियार में किसी विशेष धर्म और देवता का निर्देश नहीं है। दक्षिण भारत में बहत् परिमाण में मूर्तिपूजा और मंदिरों का निर्माण जैन धर्म के प्रभाव की ही देन हैं। ५.१० दक्षिण भारत के विविध वंशोत्पन्न जैन श्राविकाओं का योगदान __ तिरूमले में लगभग एक दर्जन शिलालेख प्राप्त हुए हैं जो तमिल मे है और जिनमें जैनधर्म का इतिहास निबद्ध है। वे शिलालेख विभिन्न स्थानों पर खुदे हुए हैं। ६५७ ईस्वी के शिलालेख में राष्ट्रकूट नरेश की रानी गंगमादेवी के एक सेवक के द्वारा तिरूमलै पहाड़ी पर स्थित यज्ञ के लिए एक दीपदान का उल्लेख है। तिरूमलै पहाड़ी पर दो शिलालेख चोलराज राजेंद्र प्रथम के राज्य के १२ वें और १३वें वर्ष के हैं। अतः उनका समय १०२३ ई. और १०२४ ई. हैं। इनमें से प्रथम में प्रसंगवश पल्लव नरेश की रानी सिन्नवई के द्वारा दीपदान का निर्देश है, दूसरे शिलालेख में श्री कुंदवइ जिनालय में देवता के लिए भेंट दान का उल्लेख है। कुंदवई चोलवंश की राजकुमारी और प्रसिद्ध चोल नरेश राज-राज प्रथम की बड़ी बहन थी। कहा जाता है कि इस मंदिर का निर्माण उसी ने कराया था। उसने दो जैन मंदिर और भी बनवाए थे। उनमें से एक दक्षिण आरकाट जिले के दादापुरम में और दूसरा त्रिचनापल्ली जिले के तिरूमलवाड़ी नामक स्थान मे बनवाया था। सित्तन्नवासल तिरुच्चिरुप्पल्लि जिले के तिरुमयम् तालुक में है। यह वह स्थान हैं जहाँ ई. पू. तीसरी शताब्दी से लेकर १२वीं शताब्दी पर्यंत १५०० वर्ष तक जैन धर्म का प्रभाव रहा था। यह स्थान अनेक प्रकार के पुरातत्वों की सामग्री से समद्ध है। यहाँ से खुदाई में जैन धर्म के अनेक उल्लेखनीय अवशेष प्राप्त हुए हैं। पहाड़ियों की एक लम्बी कतार का नाम सितन्नवासल है। सितन्नवासल का अर्थ होता है-सिद्धों या जैन साधओं का वास स्थान। तमिल में सिद्ध का सच्चारण "सित्" होता है और “वासल" का अर्थ होता है-रहने का स्थान। इस पहाड़ी पर एक प्राकतिक गुफा है। उसमें सत्रह शयन स्थान तकियों के साथ बनाये गये हैं। सबसे बड़ी शयिका पर ईस्वी पूर्व दूसरी या तीसरी शताब्दी के लगभग का एक शिलालेख ब्राह्मी अक्षरों में हैं और शेष आठवीं, नौंवीं शताब्दी के हैं। सितन्नवासल के अतिरिक्त तेनीमलै, नारट्ठीमलै नामक पहाड़ियों में भी प्राकतिक गुफाएँ पाई गई हैं। आलरूट्ठिमलै के पास में ही बोम्मलै नाम की पहाड़ी है, जिसका दूसरा नाम है समणरमलै । समरणमलै का अर्थ होता हैं-जैन साधुओं की पहाड़ी। १३वीं शताब्दी के प्रारंभ में इसे विष्णु मंदिर के रूप में बदल दिया गया।३६ शिलालेखों, ताम्र-पत्रों आदि में निबद्ध तथा वंश परंपरा की अनुश्रुतियों के आधार पर दक्षिण भारत में प्राचीन गंग वंश के मूल संस्थापक दहिंग और माधव नाम के दो राजकुमार थे । भगवान् ऋषभदेव के इक्ष्वाकु वंश में अयोध्या के एक राजा हरिश्चंद्र थे, उनके पुत्र भरत की पत्नी विजय महादेवी से गंगदत्त का जन्म हुआ । उसी के नाम से कर्नाटक का उक्त वंश जान्हवेय, गांगेय या गंगवंश कहलाया ।२७ गंग का एक वंशज विष्णुगुप्त जो अहिच्छत्रपुर का राजा हुआ तीर्थंकर अरिष्टनेमि का भक्त था । उसका वंशज श्रीदत्त भगवान् पार्श्वनाथ का अनन्य भक्त था । उन्हीं के वंश में कंप का पुत्र पद्मनाभ अहिच्छत्र का राजा हुआ । उसके राज्य पर जब उज्जयिनी के राजा ने आक्रमण किया तब दद्दिग और माधव के पिता पदमनाथ एवं माता रोहिणी ने उन्हें कुछ राजचिन्ह देकर दूर वेदेश में भेज दिया । यात्रा करते हुए दोनों राजकुमार कर्नाटक के पेरूर नामक स्थान में पहुँचे । वहाँ पर मुनिराज सिंहनंदि आचार्य के दर्शन उन्होंने किये । आचार्य सिंहनंदि ने राजकुमारों की परीक्षा ली, उन्हें योग्य देखकर उचित शिक्षा दीक्षा देकर उन्हें कर्णिकार पुष्पों का मुकुट पहनाकर उनका राज्याभिषेक किया । गंगवंश की स्थापना के समय उन्होंने सात शिक्षाएँ दी थी, जिसका पालन विष्णुगोप को छोड़कर सभी राजाओं ने किया । वी. नि. सं. १000 के उत्तरवर्तीकाल में समय समय पर सातवाहन, चोल, चेर, पाण्ड्य, कदम्ब, गंग, चालुक्य, राष्ट्रकूट, रट्ट, शिलाहार, पोयसल, आदि राजवंशों ने जैन धर्म को प्रश्रय प्रदान कर इसके अभ्युदय उत्कर्ष के कार्यों में उल्लेखनीय योगदान दिया। ईसा की पाँचवी-छठी शताब्दी तक जैन धर्म मुख्य रूप से दक्षिणापथ का एक प्रमुख, शाक्तिशाली, एवं बहुजन सम्मत धर्म रहा । अनेक शिलालेखों, पुरातात्विक अवशेषों एवं "जैन संहार चरितम्" आदि शैव परंपरा की प्राचीन साहित्यिक लघु कतियों से यह तथ्य प्रकाश में आता है कि तमिलनाडु तथा आंध्र कर्नाटक में शैव संप्रदाय एवं वैष्णव संप्रदाय के अभ्युदयोत्कर्ष से पूर्व जैन धर्म का दक्षिणी प्रान्तों में सर्वाधिक वर्चस्व रहा था। प्राप्त उल्लेखों से यह स्पष्ट होता है कि सुंदर पाण्ड्य के शासनकाल में समस्त दक्षिणापथ में और विशेषतः तमिलनाडु में जैन धर्मावलम्बियों की गणना प्रबल बहसंख्यक के रूप में की जाती थी ! मदुरै में ज्ञान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003610
Book TitleJain Shravikao ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages748
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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