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जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
वेनूर की गाम्मटेश्वर या बाहुबली की मूर्तियाँ । इनमें वेनूर की मूर्ति तीनों में सबसे छोटी अर्थात् ३५ फीट ऊँची है और श्रवणबेलगोला की मूर्ति सबसे बड़ी अर्थात् ५७ फीट ऊँची है। उनका समय क्रम से ६८३ ई., १४३ ई. और १६०४ ई. के लगभग है। तीनों मूर्तियाँ यथायोग्य ऊँचे स्थान पर बिराजमान हैं, दूर से दष्टिगोचर होती है, और दर्शकों को बरबस अपनी ओर आकष्ट करती है। तीनों में भव्यता पायी गई।
श्रवणबेलगोला के चंद्रगिरि पर १५ बस्तियाँ है। वे सब द्रविड शैली की है। उत्तर भारत के जैन मंदिरों पर पाये जानेवाले शिखर उन पर नहीं है। उनका साधारण बाह्यरूप उत्तर भारत के जैन मंदिरों के साधारण रूप से कहीं अधिक अलंकत है। श्रवणबेलगोला के अभिलेखों में अनेक श्राविकाओं एवं आर्यिकाओं का उल्लेख हैं, जिन्होंने तन-मन-धन से जैन धर्म अपनाया था। श्राविकाओं ने अपने द्रव्य से अनेक जिनालयों का निर्माण कराया था तथा उनकी समुचित व्यवस्था के लिए राज्य की ओर से भी सहायता का प्रबंध किया था। उनमें श्राविका अतिमब्बे (१०वीं सदी), सावियब्बे, जक्कियब्बे, कंती आदि प्रमुख हैं। अतिमब्बे का धर्म सेविकाओं में अद्वितीय स्थान है। ___ १०वीं शताब्दी के अंतिम भाग में वीरवर चामुण्डराय की माता काललदेवी एक बड़ी धर्मप्रचारिका हुई है। भुजबल चरितम् से ज्ञात होता हैं कि इस देवी ने गोम्मटदेव की प्रशंसा सुनी तो प्रतिज्ञा की कि जब तक गोम्मट देव का दर्शन नहीं करूंगी तब तक
द्ध नहीं पीऊँगी। जब चामुण्डराय को अपनी पत्नी अजिता देवी के मुख से अपनी माता की प्रतिज्ञा ज्ञात हुई तो मातभक्त पुत्र ने माता को गोम्मटदेव के दर्शन कराने के लिए पोदनपर की ओर प्रस्थान किया। मार्ग में उसने श्रवणबेलगोला की चंद्रगप्त बसति के भ० पार्श्वनाथ जी के दर्शन किये और आचार्य स्वामी भद्रबाहु के चरणों की वंदना की । इसी रात पद्मावती देवी ने काललदेवी को स्वप्न दिया कि कुक्कुट सर्यों के कारण पोदनपुर की वंदना संभव नहीं है, पर तुम्हारी भक्ति से प्रसन्न होकर गोम्मटदेव तुम्हें यहीं बड़ी पहाड़ी पर दर्शन देंगे। दर्शन देने का प्रकार यह है कि तुम्हारा पुत्र शुद्ध होकर इस छोटी पहाड़ी पर से एक स्वर्ण बाण
है तो पाषाण शिलाओं के भीतर से गोम्मट देव प्रकट होंगे। प्रातः काल होने पर चामुण्डराय ने माता के आदेशानुसार नित्य कर्म से निवत्त हो दक्षिण दिशा की ओर मुँह कर एक बाण छोड़ा जो विंध्यगिरि के मस्तक पर की शिला में लगा। बाण के लगते ही शिलाखण्ड के भीतर से गोम्मट स्वामी का मस्तक दष्टिगोचर हुआ। अनंतर हीरे की छेनी और हथोड़ी से शिलाखण्ड को हटाकर गोम्मट देव की प्रतिमा निकाल ली गई। इसके पश्चात् माता की आज्ञा से वीरवर चामुण्डराय ने दुग्धाभिषेक किया। इस पौराणिक घटना में कुछ तथ्य हो या ना हो, पर इतना निर्विवाद सत्य है कि चामुण्डराय ने अपनी माता काललदेवी की आज्ञा और प्रेरणा से ही श्रवणबेलगोला में गोम्मटेश्वर की मूर्ति स्थापित करायी थी। इस देवी ने जैन धर्म के प्रचार के लिए भी कई उत्सव किये थे। प्राचीन शिलालेखों ओर वाड्मय के उल्लेख से ज्ञात होता है कि जैन श्राविकाओं का तत्कालीन समाज पर पर्याप्त प्रभाव था, जिसका विवरण आगे के पष्ठों में दिया जा रहा है। होयसल वंश, राष्ट्रकूट वंश, गंग राजवंश, कदंब शासक पश्चिमीय चालुक्य आदि कई राजवंश के जैन सेनापतियों की स्त्रियों ने अपने समय में जैन धर्म के संरक्षण के महत्वपूर्ण कार्यों में सक्रियात्मक भाग लिया है। राजघरानों, सामंतों और सेनापतियों की पत्नियों की तरह नागरिक महिलाओं में भी जैन धर्म के प्रति गाढ़ अनुराग था। शिलालेख संग्रह में ऐसी अनेकों महिलाओं का उल्लेख है जिन्होंने समाधिपूर्वक शरीर त्यागा। इन महिलाओं के लिए प्रेरणा स्त्रोत हमारे जैनाचार्य, संत एवं साध्वियाँ हैं जिन्होंने अपनी उदारता, बुद्धिमत्ता, तपस्या और त्याग से केवल राजाओं, सामंतों, सेनापति-मंत्रियों को ही प्रभावित नहीं किया, जनसाधारण में जो प्रभावशाली और उनके संपन्न वर्ग थे, उन्हें भी आकष्ट किया । जारवंशों को सहयोग देकर उन्होंने अपना अनुयायी बनाया और धर्मोपदेश आदि के द्वारा मध्यमवर्ग की भक्ति अर्जित की। अनेक मंदिरों, प्रमुख केंद्रों
और स्मारकों के साथ राजाओं, सामंतों और मंत्री सेनापतियों का जो क्रियात्मक समर्थन जैन धर्म को प्राप्त हुआ उससे दक्षिण भारत में जैन धर्म के प्रचार और शक्ति को पूर्ण बल मिला। तमिल और तेलगु साहित्य पर जैनों का प्रभाव न तो उतना गंभीर था और न स्थायी जितना कर्नाटक साहित्य पर। ईसा की प्रारंभिक शताब्दियों से लेकर बारहवीं शताब्दी तक जैनों ने कन्नड में साहित्य रचना की। केवल पुरुषों ने ही नहीं, जैन स्त्रियों ने भी कन्नड़साहित्य को समद्ध करने में योगदान दिया। उनमें कंति का नाम उल्लेखनीय हैं। यह देवी होयसल नरेश लल्ला प्रथम के राज दरबार को सुशोभित करती थी, तथा उसने राजदरबार में अभिनव पम्य की अपूर्ण कविता की पूर्ति की थी। जैनी बड़े अध्ययनशील और सुलेखक थे, साहित्य और कला के प्रेमी थे। तमिल साहित्य को जैनों की देन तमिल साहित्य के भण्डार की बहुमूल्य संपत्ति है। जैन तमिल साहित्य की एक बड़ी विशेषता यह है कि कुछ
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