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के बेशुमार लेखों को देखकर वे आश्चर्य में पड़ गए। उन्होंने ई. सन् १८८१ में इंस्क्रिप्शन एट श्रवणबेलगोला नामक एक पुस्तक में १४४ शिलालेख अलग से प्रकाशित किए ।
आठवीं से पंद्रहवीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
श्री राईस के बाद रायबहादुर. आर. नरसिंहाचार निदेशक नियुक्त हुए । उन्होंने एपिग्राफिका कर्नाटिका वॉल्यूम-२, इंस्क्रिप्शन एट श्रवणबेलगोला के रूप में ५०० शिलालेखों का संग्रह प्रकाशित किया। स्व. नाथुराम प्रेमी की दष्टि इस संग्रह पर गई और उन्होंने, जैन शास्त्रों, एवं पुरातत्व के चोटी के विद्वान स्व. डॉ हीरालालजी जैन से इन लेखों का संग्रह एक विस्तत भूमिका के साथ माणिकचंद्र दिंगबर जैन ग्रंथमाला के अंतर्गत जैन शिलालेख संग्रह भा-१ देवनागरी लिपि में, शिलालेखों की विषय वस्तु के संक्षिप्त परिचय के साथ संपादित कराकर प्रकाशित किया। यह बात १६२८ ईस्वी की है। बाद में जैन शिलालेखों के चार भाग और प्रकाशित किए गए है | श्रवणबेलगोल के शिलालेखों की संख्या ५७३ तक पहुँच गई। मैसूर विश्वविद्यालय के "इन्स्टीट्युट ऑफ कन्नड़ स्टडीज़" के प्रयत्नों से यह संग्रह कन्नड़ रोमन लिपि में है। सामान्य उपयोगिता इन शिलालेखों की यह है कि भारतीय, विशेषकर कर्नाटक के इतिहास और जैन धर्म के इतिहास की अनेक गुत्थियाँ जानने समझने में इनसे बड़ी सहायता मिली है। श्रवणबेलगोला के ये शिलालेख ईसा की छठीं शताब्दी से लेकर उन्नीसवीं शताब्दी तक के है ।
चंद्रगिरि के पार्श्वनाथ बसदि के दक्षिण की ओर ई. सन् ६०० ( शक संवत् ५२२ ) का जो शिलालेख है, उसी से हमें ज्ञात होता है कि आचार्य भद्रबाहु और चंद्रगुप्त मौर्य (दीक्षा नाम प्रभाचंद्र) संघ सहित अनेक जनपदों को पार कर उत्तरापथ से दक्षिणापथ आए, और वही कटवप्र पर उन्होंने समाधिमरण किया था । संख्या की दृष्टि से सबसे अधिक शिलालेख बारहवीं शताब्दी के है, ७६ शिलालेख संख्या इस क्रम में हैं। यहाँ के शिलालेखों में निम्नलिखित लिपियों का प्रयोग हुआ हैं- कन्नड़, मलयालम, तमिल, तेलुगु, देवनागरी। इस विविधता से यह निष्कर्ष निकलता हैं कि श्रवणबेलगोल उत्तर और दक्षिण भारत में समान रूप से एवं प्राचीनकाल से ही एक लोकप्रिय तीर्थस्थान रहा हैं। आज की भांति, अतीत में भी यहाँ की यात्रा सभी प्रदेशों के लोग करते रहे हैं। पंजाब प्रदेश की ढ़ोंगरी भाषा में भी यहाँ लेख पाया गया हैं । ३५
आचार्य जिनसेन (द्वितीय) के आदिपुराण में वर्णित भरत बाहुबली आख्यान को सुनकर चामुण्डराय की माता काललदेवी को बाहुबली की प्राचीन मूर्ति के दर्शन की इच्छा हुई, जिसके परिणामस्वरूप श्रवणबेलगोल में बाहुबली की मूर्ति का निर्माण हुआ । यह ऐतिहासिक नाम स्वयं चामुण्डराय के समय से ही प्रचलित हुआ है । या फिर कन्नड़ के प्रसिद्ध कवि बोप्पण के ई. सन्. ११८० के शिलालेख के बाद प्रचलित हुआ । जिसमें गोम्मटेश्वर के अतिरिक्त बाहुबली और दक्षिण कुक्कटेश नामों का भी प्रयोग किया हैं। संभवतः इसी के साथ चामुण्डराय का एक नाम गोम्मट या गोम्मटराय और श्रवणबेलगोल का गोम्मटपुर नाम भी प्रचलित हो गया । चामुण्डराय के गुरू आचार्य नेमिचंद्र सिद्धांतचक्रर्ती ने गोम्मटेस थुदि और गोम्मटसार की रचना की हैं ।
५.६ कर्नाटक की जैन श्राविकाएँ
जैनधर्म ने देश को अत्यंत समद्ध सांस्कतिक वारसा प्रदान किया है। कलाओं की प्रगति के क्षेत्र में इसकी देन महान हैं। अनेक स्तूप, कलापूर्ण चित्रांकित शिला स्तम्भ, और बहुसंख्यक मूर्तियाँ जैन कला की महानता के प्रमाण हैं। मैसूर राज्य के अंतर्गत श्रवणबेलगोला और दक्षिण कर्नाटक के अन्तर्गत कारकल में गोम्मटेश्वर की विशालकाय मूर्तियाँ विश्व के आश्चर्यों में से हैं ।
देश के नैतिक व आचार संबंधी प्रभाव के अतिरिक्त कलाओं और भाषाओं के विकास में भी जैन धर्म की अद्भुत देन है। देश के भाषा संबंधी विकास में जैनों ने बहुत योगदान दिया है। उन्होंने धर्म प्रचार तथा ज्ञान की रक्षा के निमित्त भिन्न-भिन्न स्थानों में भिन्न-भिन्न समय की प्रचलित भाषाओं का उपयोग किया है। कुछ भाषाओं को सर्वप्रथम साहित्यिक रूप देने का श्रेय उन्हीं को है । कन्नड़ का प्राचीनतम् साहित्य जैनों द्वारा निर्मित है, प्राचीन तामिल साहित्य भी अधिकांशतः जैन लेखकों का ही है । तामिल के मुख्य महाकव्यों में से दो -"चिंतामणी' और "शीलप्पदिकरम्" जैन लेखकों की ही कतियाँ हैं। प्रसिद्ध नालदियर का मूल भी जैन है। दक्षिण मैलापुर (मद्रास शहर का एक भाग) किसी समय जैन साहित्यिक रचनाओं का मुख्य केन्द्र था ।
कर्नाटक को जैन धर्म की एक बड़ी देन उसकी मूर्तिकला है। जैन मूर्ति का एक निर्धारित रूप है, और कलाकार को उसे लेकर चलना होता है। इसीसे एक हजार वर्ष के विभिन्न समयों मे निर्मित जैन मूर्तियों की स्टाइल में अंतर नहीं देखा जाता। इसके उदाहरण के रूप में कर्नाटक की तीन विशाल जैन मूर्तियों को उपस्थित किया जा सकता है। वे है श्रवणबेलगोला, कारकल, और
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