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मुनि जयंतविजय जी की सौम्यता एवं समता से प्रभावित हुई। जैन धर्म के परिचय से उसका जैन धर्म में दो प्रकार का योगदान रहा। एक जैन धर्म में विद्वत्ता तथा दूसरा जैन धर्म के अनुयायी के रुप में प्रसिद्ध हुई । Dr. Lueigard Soni ने उनके जीवन चरित्र पर निबंध लिखा है। उसने जैन साधु एवं साध्वियों जैसा जीवन जीने का प्रयास किया और शिवपुरी से बम्बई तक की पैदल यात्रा की। उनके साथ बराबर के प्रवास में उसने जाहिर निर्णय लिया तथा जैन अहिंसा व्रत को जीवन पर्यन्त धारण किया । उसने अपना I नाम भी सुभद्रा देवी रख लिया था । यद्यपि जन्म वह ईसाई थी, किंतु इन सब बातों को एक तरफ रखकर उसने स्वेच्छा से जैन व्रतों को सही रूप में धारण किया। प्रो० सागरमल जी राजापुरा में उनसे मिले तब उन्हें पता चला कि वह जैन मंदिर में जिन देव के दर्शन के बिना मुँह में पानी भी नहीं डालती थी । वद्धावस्था में उनकी जैन धर्म पर आस्था डगमगा गई, क्यों कि उसकी देखभाल में लापरवाही की गई। मत्यु के अंतिम समय तक ( Jan 27, 1980) उसने अपना जीवन रोमन कैथोलिक चर्च, ग्वालियर में व्यतीत किया। जैन धर्म के आर्थिक सहयोग के बिना चारलोट ने कई भाषाओं पर जर्मन, अंग्रेजी, हिंदी और गुजराती में विभिन्न पहलुओं पर जैन-धर्म, दर्शन, काव्यरीतिरिवाजों पर आरव्यान लिखे। उसके महत्वपूर्ण योगदान के बावजूद भी किसी ने पुस्तक छपवाने का प्रयत्न नहीं किया। उसके १५ निबंधों की चर्चा एवं संपादित कार्यों की प्रस्तुति उसकी जीवनी की पुस्तक में हैं। उसके अपने निबंध दी केलीडिस्केप ऑफ इंडियन वीजडम में है। उसने दर्शन के आस्तिक नास्तिक भेदों को वैदिक तथा अवैदिक दो विभागों में बांटा है। सांख्य और योग को उसने वैदिक में रखा जब कि ये दोनों श्रमण परंपरा के हैं। The Interpretation of Jain ethics, Jain महाकाव्यों को व्यवहारिक स्तर पर जिनकल्प और स्थविर कल्प, पुण्य, पाप, आश्रव-संवर, ५ समिति, ३ गुप्ति, २२ परिषह, १० धर्म, १२ अनुप्रेक्षायें, ५ चरित्र, ५ महाव्रत साधु के श्रावक के १२ व्रत, १२ प्रकार निर्जरा के षड्ावश्यक आदि पर उसनें व्याख्यायें कीं हैं, अपनी आलोचना उसपर उसने प्रस्तुत नहीं की है।
सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
"The Heritage of last Arhat" Perfect Soul free from passions could be attained through self restraint and renunciation pratyakhyana and saiyama".
"The Jain canon and Early Indian Court Life. "This Essay lacks the original references जैन आगमों के मौलिक आधारों से रहित है, यदि लेखक ने आधार दिया होता तो एक अच्छा शोध प्रबंध बन जाता ।
वर्तमान के जैन धर्म के सामाजिक वातावरण के संबंध में Dr. C. Krause ने कहा है कि जैन जन्म से नहीं किंतु कर्म से होता है, जो उसके आदर्शों को अपने जीवन में अपनाता है । अनेकांतवाद जैसे सिद्धांतों को पाकर भी जैन धर्म संप्रदायों में बाँट गया, यह बड़ा ही शोचनीय विषय है।
Pythagoras di Vegetarian में उसने शाकाहार के संबंध में पैथागरस के विचार रखते हुए कहा कि भगवान स्वामी महावीर की तरह ही शाकाहार का प्रचार करने वाले ग्रीक विचारक भगवान स्वामी महावीर के समकालीन ही हुए थे । भ. महावीर से पूर्व भ. पार्श्वनाथ और भ. अरिष्टनेमिनाथ जी ने भी शाकाहार का प्रचार किया था। आचार्य सिद्धसेन दिवाकर और विक्रमादित्य दोनों के संबधों का पता, सिद्धसेन रचित कृति गुणवचनद्वात्रिंशिका के द्वारा प्रकाश में उन्होंने लाया कि वह कति समुद्रगुप्त पर लिखी गई, जो राजा चंद्रगुप्त (विक्रमादित्य) के पिता थे। सिद्धसेन दिवाकर पाँचवीं शताब्दी के थे, यह उनका दढ़ निश्चय है। क्षपणक नाम के कवि जो विक्रमादित्य राजा के राज्य में थे, वे सिद्धसेन दिवाकर ही थे यह उनका मन्तव्य है ।
पुस्तिका Jawad of Mandu (जावड़ ऑफ माण्डु) में एक व्यक्ति जो विक्रम की १६ वीं शती का है, उसका वर्णन है। जावड़ ने अपने गुरू का स्वागत किया था और उनसे १२ व्रत धारण किये थे। जावड़ ने दो मूर्तियाँ बनवाई थीं जिसमें एक १० K.G सोने की थी, दूसरी में 20 KG चाँदी थी । एक उत्सव में उसने १५ लाख रूपये का खर्चा किया । जावड़ दानशील था, धनाढ्य श्रावक था । अंग्रेजी विभाग में अंतिम दो निबंध श्री विजयधर्म सूरिजी म. के जीवनचरित्र एवं उनके उपदेशों पर आधारित हैं। श्री विजय धर्मसूरिजी म. उनके गुरू ही नहीं अध्यात्म के शिक्षक भी रहे हैं। उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा है कि उन्होंने जैन धर्म को पाश्चात्य विद्वानों तक विदेशों में पहुँचाया। राजनैतिक रिवाजों में विशिष्ट परिवर्तन, देवद्रव्य तथा अनेक कलहों के समाधान रूप का वर्णन उनके प्रेरक आध्यात्मिक उपदेशों का वर्णन उस में किया है, जिससे व्यक्तित्व का निर्माण हो सके ।
इस निबंध में हिंदी विभाग के २ महत्वपूर्ण निबंध हैं, "जैन साहित्य और महाकाल मंदिर" एवं "आधुनिक जैन समाज की
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