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________________ जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास 217 | Crocktocockoooooooooooooooooo पंचम अध्याय OCHORooooococcsecsiece आठवीं से पंद्रहवीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ उत्तर और दक्षिण इन दो विभागों में संपूर्ण भारत देश का विस्तार है। उत्तर और दक्षिण दोनों ही विभागों में भारत की समद्ध, सांस्कतिक, धार्मिक, राजनैतिक धरोहर उपलब्ध होती है। भारत में अनेक संस्कतियों का अस्तित्व रहा है, अनेक विदेशी संस्कतियों ने भी भारत में अपने पैर जमाने का प्रयत्न किया हैं। विभिन्न परिस्थितियों के चक्रवात से जझती हई भारतीय संस्कति ने अपने अस्तित्व को कायम रखा है तथा समय समय पर जहाँ एक ओर इस संस्कति ने विदेशी संस्कतियों को प्रभावित किया है, वहीं उस पर भी विदेशी संस्कतियों का प्रभाव पड़ा है। प्रस्तुत अध्याय में हमने उत्तर और दक्षिण भारत की राजनैतिक और धार्मिक परिस्थितियों में जैन नारी वर्ग का जो महत्वपूर्ण योगदान रहा है, उस पर प्रकाश डालने का प्रयत्न किया है। ५.१ उत्तर भारत में जैन धर्म ___ उत्तर भारत में जैन श्राविकाओं ने जैनधर्म के उन्नयन में महत्वपूर्ण सहयोग दिया है। राजा भोज की धारा नगरी के राजकवि धनपाल की पुत्री ने अपनी विलक्षण स्मरणशक्ति से अग्नि में भस्मीभत कादम्बरी के समान अनमोल तिलकमंजरी नामक आधा हिस्सा अपने पिता को सुनाया। पिता ने आधा हिस्सा नया जोड़कर ग्रंथ को संपूर्ण किया। इस प्रकार धनपाल की पुत्री को तिलकमंजरी ग्रंथ को संपूर्ण करने का श्रेय जाता है। प्राकृत भाषा की प्रखर प्रतिभा के रूप में सुंदरी श्राविका का योगदान भुलाया नही जा सकता। उसने धनपाल कवि द्वारा रचित "पाइयलच्छी नाम माला” नामक प्राकृत कोष से सर्वप्रथम प्राकृत भाषा का अभ्यास किया था। इस ग्रंथ की रचना की वह प्रेरणास्त्रोत बनी। गुर्जर देश की श्राविका श्रीमती ने अंबिका देवी से आबू पर्वत पर मंदिर निर्माण का वरदान मांगा, किन्तु पुत्र प्राप्ति के वरदान को ठुकरा दिया। उस श्राविका श्रीमती के त्याग की जीवंत यश गाथा है विमलवसहि का कलापूर्ण मंदिर । ई.सन् ११०० के आसपास वरूम गाँव में चालुक्य नरेश जयसिंह सिद्धराज की माता मीनलदेवी ने मॉनसून झील बनवाई थी। पाहिनी श्राविका ने गुरू आदेश को शिरोधार्य करते हुए पुत्र मोह का त्याग किया था। आचार्य हेमचंद्र जैसा शासनसेवी सुपुत्र जिनशासन को समर्पित किया था। सोलंकी वंश के राजा कुमारपाल जैसे जिनधर्मप्रभावक सपूत को सुसंस्कारित करने में माता कश्मीरी का महत्वपूर्ण योगदान रहा था। उसने बचपन से ही पुत्र को कठिनाईयों का सामना करने की शिक्षा दी थी। कुमारपाल की रानी भोपाला ने संकट के समय में अपने पति को पूर्ण सहयोग दिया था। कुमारपाल के राजा बनने तक इस रानी का पूर्ण सहयोग रहा था। साहित्य जगत में तत्कालीन श्राविकाओं का बड़ा महत्व रहा है। १३वीं शताब्दी में क्षत्रिय राजा विजयपाल की रानी नीतल्लादेवी ने मंदिर एवं पौषधशाला का निर्माण करवाया तथा योगशास्त्र निवत्ति की पुस्तक लिखवाई जो पाटण में विद्यमान है। कलिंगदेश (उड़ीसा) अतिप्राचीन काल से जैनधर्म का गढ़ था। छठी-सातवीं शताब्दी के बाणपुर-शिलालेख से प्रकट हैं कि, उस समय कलिंगदेश के शैलोद्भववंशी नरेश धर्मराज की रानी कल्याणदेवी ने जैनमुनि को धर्म कार्य के लिए भूमि का दान दिया था। महाराजा हिमशीतल की राजमहिषी मदनावती ने रथोत्सव का विशाल आयोजन किया था, और जैनमत की स्थापना की थी। ५.२ आठवीं से दसवीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ: उत्तर भारत के मध्यकालीन इतिहास में भट्टारक संप्रदाय के पद चिन्ह दिखाई देते है। भट्टारक परंपरा दिगंबर और श्वेतांबर दोनों में ही पाई जाती है। भट्टारक एक प्रकार के जैन मुनि या यति है जो धर्मशास्ता की तरह प्रतिष्ठित थे। मंदिरों के लिए दान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003610
Book TitleJain Shravikao ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages748
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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