SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 240
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 218 में दी गई बड़ी बड़ी भूमियों को संभालाने थे एवं सभी धार्मिक गतिविधियों में उनको प्राथमिकता दी जाती थी । धवला तथा हरिवंशपुराण में भट्टारक परंपरा का उल्लेख प्राप्त होता है। महावीर के बाद की प्रथम सात शताब्दी तक इनका क्रमिक इतिहास प्राप्त नहीं होता है । भद्रबाहु द्वितीय तथा लोहार्य द्वितीय इस परंपरा के अंतिम दो सदस्य माने जाते है। भट्टारक की पारंपरिक पट्टावली की विभिन्न गद्दी भी संभवतया इन दोनों से ही प्रारंभ होती है। ईस्वी सन् की आठवीं शताब्दी से इस परंपरा के बारे में निश्चित संदर्भ प्राप्त होते हैं। तब से अब तक यह परंपरा चली आ रही हैं। भट्टारक परंपरा का मध्यकालीन समाज में महत्वपूर्ण स्थान रहा है। इस परंपरा में कई प्रभावशाली भट्टारक हुए है जिनकी प्रेरणा से जैन श्राविकाओं द्वारा जैन ग्रंथों के निर्माण में एवं तीर्थंकर प्रतिमाओं के निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान रहा है। इस काल में हस्तलिखित ग्रंथों की सुरक्षा हुई थी। हर व्रतके उद्यापन समारोह पर भट्टारकों को हस्तलिखित प्रतियाँ भेंट स्वरूप दी जाती थीं । आठवीं से पंद्रहवीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ आठवीं शताब्दी में (ई. सन् ७२६ - ७६) गंग नरेश श्रीपुरूष मुत्तरस, पथ्वीकोंगुणी के दीर्घकालीन शासन में गंगराज्य पुनः अपनी शक्ति एवं समद्धि की चरम सीमा पर पहुँच गया। गंग नरेश ने पाण्ड्यनरेश राजसिंह के पुत्र के साथ अपनी पुत्री का विवाह करके उस राज्य से मैत्री संबंध बनाया । परिणाम स्वरूप पाण्ड्य देश में पिछले दशकों में जैनों पर जो भयंकर अत्याचार हो रहे थे उनका अंत हुआ। तमिल भाषा की साहित्यिक प्रवत्तियों में जैन विद्वानों का पुनः सहयोग प्राप्त हुआ । इन्हीं राजा श्रीपुरूष के राज्यकाल में श्रीपुर की उत्तरदिशा में सागर कुल तिलक मरूवर्मा की पुत्री राजमहिला कुन्दाच्चि ने लोकतिलक नामक भव्य जिनालय का निर्माण करवाया था एवं राजा ने इसके लिए कुछ दान भी दिया था । T नववीं शताब्दी में वीर राजा पथ्वीपति और उसकी रानी कम्पिला परम जैन धर्मानुयायिनी थी। इनके पुत्र मारसिंह तथा पौत्र आदि भी जैन धर्मी थे। इसी शती में राष्ट्रकूट सम्राट् अमोघवर्ष प्रथम की पुत्री राजकुमारी चन्द्रबेलब्बा ; अब्बलब्बा भी दढ जैन श्राविका थी । दसवीं शताब्दी में बूतुग द्वितीय, गंग गंगेय के शासनकाल में उनकी तीन रानियाँ थी रेवा, कलम्बरसी, तथा दीवलाम्बा । तीनों में दीवलाम्बा दढ़ जैन श्राविका थी, उसने सुंदी नामक स्थान में जिनालय का निर्माण करवाया, जिसके संरक्षण के लिए राजा ने बहद् दान दिया । ५ नौवीं शताब्दी में ही कन्नौज के गुर्जर प्रतिहारवंश का सर्वाधिक प्रसिद्ध एवं सर्वमहान् नरेश मिहिरभोज था । इनके राज्य काल में सौराष्ट्र के जैन तीर्थ गिरनार के जैन मंदिर में एक भग्न शिलालेख प्राप्त हुआ था । उसमें अंकित हैं कि महीपाल नामक सामंत राजा के संबंधी वयरसिंह की भार्या फाऊ, पुत्रियाँ रूडी एवं गांगी ने परिवार के साथ मिलकर नेमिनाथ जिनालय बनवाया तथा मुनिसिंह द्वारा उसकी प्रतिष्ठिा करवायी थीं। उस समय समाज में विद्वानों के प्रति पूरा आदर का भाव था ऐसा स्पष्ट दिखाई देता है । ६ दसवीं शताब्दी में बीजब्बे, सोमिदेवी आदि श्रद्धाशील श्राविकायें हुई हैं। दसवीं शती में ही इस वंश के राजा राचमल्ल सत्यवाक्य चतुर्थ के अद्वितीय मंत्री सेनापति चामुण्डराय ने अपनी माता कालल देवी की इच्छा पूरी करने के लिए ई. ६७८ में • गोम्मटेश्वर - बाहुबली की विश्व विश्रुत ५७ फीट उत्तुंग खड्गासन प्रतिमा का निर्माण करवाया था | चामुण्डराय की छोटी बहन धर्मात्मा पुलवे ने विजय मंगलम् स्थान की चंद्रनाथ बसदि में समाधिमरण किया था। इस काल में वीर महिलारत्न लोक विद्याधर की पत्नी सावियब्बे हुई थी, जो परम जिनेंद्र भक्त थी । ईस्वीं सन् की ग्यारहवीं शताब्दी में राष्ट्रकूट नरेश कष्ण ततीय के राज्यकाल में सन् ६११. ईस्वी में नागर खण्ड के अधिकारी सत्तरस नागार्जुन का स्वर्गवास हो गया था। उनके स्थान पर उनकी पत्नी जक्कियब्बे को अधिकारी के पद पर नियुक्त किया गया था । जक्कियब्बे शासन में सुदक्ष और जैन शासन की भक्त सुश्राविका थीं। इसी शताब्दी में जैन इतिहास में स्मरणीय अतिमब्बे नाम की एक आदर्श उपासिका हुई थी। इसने अपने धन से पोन्नकत शांति पुराण की एक हज़ार प्रतियाँ और डेढ़ हज़ार सोने एवं जवाहरात की मूर्तियाँ तैयार करवायी थी। अतिमब्बे का धर्मसेविकाओं में अद्वितीय स्थान हैं। दसवीं शताब्दी के अंतिम भाग में वीर चामुण्डराय की माता काललदेवी श्रेष्ठ धर्मप्रचारिका सुश्राविका हुई है, उसने प्रतिज्ञा की थी कि जब तक गोम्मट देव के दर्शन नहीं करूंगी तब तक दूध नहीं पीऊँगी। चामुण्डराय को अपनी पत्नी अजितादेवी द्वारा माता की प्रतिज्ञा ज्ञात हुई। मातभक्त पुत्र ने अपनी माता की इच्छा पूर्ण की। गोम्मट देव की प्रतिमा का निर्माण हुआ तथा माता की आज्ञा से प्रतिमा का दुग्धाभिषेक भी हुआ । इस प्रकार काललदेवी गोम्मट देव की प्रतिमा स्थापन करवाने की प्रेरिका रही जैन धर्म के प्रचार प्रसार के लिए उसने कई उत्सव भी किये। " Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003610
Book TitleJain Shravikao ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages748
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy