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________________ जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास कि हार और हाथी लौटा दे। चेटक ने बदले में आधा राज्य देने का संदेश कहलवाया। तथा यह भी कहा कि शरणागत की रक्षा मेरा प्रथम दायित्व है, अन्त में चेटक-कूणिक संग्राम छिड़ा । १६४ नारी का आभूषण प्रेम तथा पुरुषों का नारी स्नेह युद्ध जैसे अनर्थ को आमंत्रित कर देता है। ३.७.७६ पोटिला जी : तेतलीपुर नगर में कनकरथ राजा राज्य करता था, जिनके मंत्री तेतलीपुत्र की पत्नी का नाम पोटिला था। किसी समय पोटिला तेतली पुत्र को अप्रिय हो गई। पोटिला को चिंतामग्न देखकर तेतलीपुत्र ने उसे भोजनशाला खोलकर आहार दान करने का निर्देश दिया। एक बार सुव्रता आर्या की शिष्यायें भिक्षार्थ परिभ्रमण करते हुए तेतलीपुत्र के गह पर आई, तब पोटिला ने साध्वियों से कहा, आप कोई ऐसा मंत्र, औषध बतायें, जिससे में पुनः तेतलीपुत्र को इष्ट हो सकूँ । बदले में साध्वियों ने उसे जिनवाणी का उपदेश दिया, पोटिला ने भक्ति के साथ श्राविका के द्वादश व्रतों को अंगीकार किया१६५ और कालांतर में दीक्षित हुई।१६६ ३.७.८० उत्पला जी : श्रावस्ती नगरी में समद्धिशाली जीवादि नव तत्वों के ज्ञाता शंख श्रावक रहते थे। उनकी सुकोमल, जीवादि नव तत्वों की ज्ञाता भगवान् महावीर की श्रमणोपासिका उत्पला नाम की पत्नी थी। उसी नगरी में पुष्कली आदि कई श्रमणोपासक थे, एक बार उन्होंने पक्खी के दिन शंख श्रावक की प्रेरणा से आहार से युक्त पौषध (दया) करने का विचार किया। घर आकर शंख श्रावक ने आहारत्याग रूप पौषध अंगीकार किया और पौषधशाला में धर्म ध्यान में लीन बने । पुष्कली श्रावक शंख श्रावक को बुलाने के लिए उनके घर गए। पति की अनुपस्थिति में उत्पला श्राविका ने पुष्कली श्रावक का उचित आदर सत्कार किया, आने का प्रयोजन पूछा और मुधर शब्दों से शंख द्वारा ब्रह्मचर्य तथा आहारत्याग युक्त पौषध की आराधना का वर्णन प्रस्तुत किया। उत्पला ने उस युग की परंपरा के अनुसार शिष्टाचार संबंधी पांच बातें प्रस्तुत की (१) पुष्कली श्रावक को अपने घर आते देख हर्षित और संतुष्ट हुई (२) आसन से उठकर स्वागत के लिए सात-आठ कदम सामने गई (३) वंदन नमस्कार किया (४) बैठने के लिए आसन दिया तथा (५) आदरपूर्वक आने का प्रयोजन पूछा इत्यादि। उत्पला के आदर सत्कार तथा मदु शब्दों के संबोधन से पुष्कली श्रावक संतुष्ट हुए।१७ इस प्रकार उत्पला ने आतिथ्यसत्कार की उज्जवल परंपरा को जीवित रखा तथा अतिथिदेवो भवः के अनुरूप घर पर आये पति के मित्र का मन मधुर व्यवहार से जीत लिया। ३.७.८१ भद्रा जी : श्रेणिक राजा की राजगही में धन्य सार्थवाह रहता था, उसकी पत्नी का नाम भद्रा था। भद्रा के कोई संतान न होने से वह दुःखी थी। उसने पति की अनुज्ञा लेकर नाग यावत् वैश्रमण देवों की उपासना तथा मन्नत की। वह विपुल आहार आदि का दान भी किया करती थी। कुछ समय व्यतीत होने पर उसने एक पुत्र को जन्म दिया। देवों की अनुकंपा द्वारा होने से उसका नाम देवदत्त रखा गया। एक बार विजय चोर ने देवदत्त को मार दिया तथा कैदी बना दिया गया। कालांतर में धन्य सार्थवाह किसी कारणवश कैदी हुए। धन्य सार्थवाह और पुत्रघातक विजय चोर एक ही जंजीर में बंधे होने से तथा शौच आदि में सहयोग ग्रहण करने के लिए, धन्य आधा भोजन उसे भी देता था। भोजन लाने वाले सेवक द्वारा यह समाचार मिलने से भद्रा सार्थवाही ने धन्य सार्थवाह द्वारा कैद मुक्त होकर आने पर भी आदर नहीं किया। धन्य द्वारा स्पष्टीकरण करने पर वह संतुष्ट हुई तथा भोग भोगती हुई सुखपूर्वक रहने लगी।१६८ ३.७.८२ भद्रा जी : भगवान् के परम भक्त राजा श्रेणिक की राजगही में धन्य सार्थवाह निवास करता था। उनकी भद्रा नाम की गुणवती रूपवती धर्मपत्नी थी। भद्रा के चार पुत्र थे धनपाल, धनदेव, धनगोप और धनरक्षित । उनकी क्रमशः चार पुत्रवधुओं को पारिवारिक दायित्व सौंपने के लिए उन्होंने परीक्षा ली। प्रत्येक वधू को पांच-पांच शालि अक्षत (चावल के दाने) दिये तथा पांच वर्षों के बाद पुनः देने के लिए कहे। पांचवे वर्ष में उनसे पुनः दाने माँगे। बड़ी ने दाने फेंक दिये अतः उसे पौंछा लगाना, तथा घर का कचरा बाहर फेंकने का काम सौंपा। दूसरी ने उसे खा लिये, उसे रसोई घर का कार्य सौंपा। तीसरी ने ५ दाने संभाल कर रखे, उसे घर तथा संपत्ति की चाबियां सुपुर्द की। तथा चौथी ने चावल के दानों को पिता की खेती में बोकर खूब बढ़ा लिये थे, अतः उसे घर की प्रमुख गहिणी के रूप में नियुक्त किया, क्योंकि वह घर की प्रतिष्ठा और संपत्ति में वद्धि करने वाली थी। उनके नाम क्रमशः उज्झिता, भोगवती, रक्षिता तथा रोहिणी था /१६६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org,
SR No.003610
Book TitleJain Shravikao ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages748
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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