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________________ 634 आधुनिक काल की जन श्राविकाओं का अवदान ज्ञान करवाती आ रही हैं। सैंकड़ों श्राविकाएँ स्वाध्याय का प्रशिक्षण ग्रहण करती हुई धर्म की प्रभावना हेतु अष्ट-दिवसीय पर्युषण पर्व की आराधना करवाने के लिए अन्य ग्राम नगरों में भी स्वाध्याय सेवाएं दे रही हैं। इस प्रकार आधुनिक युग में श्राविकाएँ पुरूषों से किसी भी क्षेत्र में पीछे नहीं रहीं। उन्होंने आधुनिक युग की समस्त गतिविधियों में अपने जीवन को जोड़ा है तथा विकास के क्षितिज में नये द्वार उद्घाटित किये हैं। ७.६ तप एवं संलेखना के क्षेत्र में जैन श्राविकाओं का योगदान : जैन धर्म में मुक्ति पथ की साधना के चार सोपान बताये गये हैं, वे हैं- सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन, सम्यक् चारित्र एवं सम्यक् तप। सम्यक् तप का कतिपय आचार्यों ने सम्यक चारित्र में ही समावेश ग्रहण किया है। 'इंद्रिय निग्रहस्तपः' "जिसमें इंद्रियों का निग्रह हो वही तप है। जैन धर्म में शरीर के माध्यम से इंद्रिय निग्रह करना बाह्य तप और कषायों का उपशमन कर मन, वचन और काया को पवित्र बनाये रखना तथा सरलता विनम्रता आदि गणों का विकास करना आभ्यंतर तप है। इन दोनों के छ: छः भेद कल मिलाकर तप के बारह भेद है। प्रभु महावीर के समय में काली, सुकाली, महाकाली आदि श्रेणिक महाराजा की दस रानियों ने, रत्नावली, कनकावली आदि कठोर तप किया था। 'महावीरोत्तर काल में भी यक्षिणी, याकिणी आदि महान साध्वियों ने तप किया था। अकबर के समय में आगरा निवासिनी श्राविका चम्पा ने राजा अकबर के निग्रह में एक मास का तप किया था। वर्तमान काल में भी तप के आदर्शों पर चलने वाली तपःपूत सन्नारियां हैं। जिनका उल्लेख प्रस्तुत अध्याय में दष्टव्य है। यह तप अल्पकालिक तप है। दूसरा तप संलेखना का है जो जीवन पर्यंत का है। इस तप में अंतिम समय को सन्निकट जानकर साधक जीवन-मत्यु की आशा से रहित होकर आहार पानी का त्याग करता है। मत्यु को जीवन का आवश्यक अंग समझकर समता से व निर्भीकता से मत्यु का सामना करता है। इस संलेखना के मार्ग पर अग्रसर होने वाली अनेक जैन श्राविकाओं का वर्णन भी आगे के पष्ठों में दष्टव्य है। तप के क्षेत्र में बैंगलोर निवासी श्रीमती स्व. धापूबाई गोलेछा का नाम उल्लेखनीय हैं जिन्होंने चार माह १२२ दिन का निरन्तर गर्म जल के आधार पर तपस्या की थी। उनके इस तप से प्रभावित होकर अनेक साधु-साध्वियों व प्रतिष्ठित श्रावक-श्राविकाओं ने उनका अभिनंदन किया था। इस तप से धापूबाई ने विश्व कीर्तिमान स्थापित किया था। विजयवाड़ा की एक जैन महिला ३० दिन की तपस्या प्रतिवर्ष संपन्न करती है। जम्मू की सविताजी ने ७२ दिन की तपस्या संपन्न की है। जयपुर की चाँदरानी जैन ने एक मासरवमण (३० दिवसीय तप) का पारणा कर के पुनः मासखमण तप अंगीकार किया है। जैन क परंपरा में सैंकड़ों श्राविकाएँ डेढ़ माह का उपधान तप अंगीकार किया करती हैं। श्राविकाएं चार-चार माह तक एकांत देव, गरू, धर्म तत्व की आराधना हेतु पालीताणां आदि तीर्थ-स्थानों में जाकर समय व्यतीत करती हैं। उदयपुर निवासी रतन बाई मेहता २८ वर्षों से वर्षीतप की आराधना कर रही है। बैंगलौर निवासी सुशीला बाई धोका का तो संपूर्ण जीवन तपस्या की विविध आराधनाओं में ही व्यतीत हुआ है। इसी प्रकार दुर्ग निवासी त्रिशला देवी जैन ने विविध तपाराधनायें की हैं। बैंगलौर निवासी आशा बाई तथा रामनगर मैसूर निवासी उगमाबाई सुराणा आदि बहनों ने वर्द्धमान आयंबिल तप की आराधना की है। जिनमें ५०० आयंबिल साधना सहित निरन्तर किये जाते हैं। इसी ओली तप की आराधना में घोड़नदी पूना निवासी श्रीमती विमलबाई बरमेचा एवं पद्मा बाई बरमेचा का नाम उल्लेखनीय है। नासिक निवासी श्रीमती सायरबाई चोपड़ा, गुलाब बाई एवं विजया बाई बरमेचा आदि का जीवन भी तप की एक दिव्य-ज्योति है। स्वेच्छा से आहार-पानी का त्याग करते हुए संथारे के महामार्ग पर बढ़नेवाली श्राविकाओं में हरियाणा निवासी श्रीमती अनारकली का नाम उल्लेखनीय है। इन्होनें दो माह तक आत्मा और शरीर का भेद-विज्ञान करते हुए सफलापूर्वक समाधिमरण किया, जो अपने आप में अद्भुत है। राजस्थान की श्रीमती लक्ष्मीदेवी श्यामसुखा ने इक्कीस दिन का अनशन अंगीकार किया था। मनोहरीदेवी बोथरा ने अड़तीस दिन का, भंवरीदेवी ने ३६ दिन का, ऋषिबाई सेठिया ने इक्यासी दिन का, कोयला देवी बोथरा ने ५० दिनों का सुंदरी देवी बोकाड़िया ने २८ दिनों का संथारा ग्रहण किया था। श्रीमती कलादेवी आंचलिया ने तो १२१ दिन की तपस्या संपन्न की जो अपने आप में एक रिकार्ड है। श्रीमती मनोहरी देवी ने अपने जीवन में तीस बार मासखमण तप अंगीकार किया। दिल्ली वीरनगर निवासी श्रीमती कांताजी, चांदनी चौंक की रम्मोदेवी, मिश्रीबाई आदि सन्नारियों ने देह की आसक्ति का त्याग करके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003610
Book TitleJain Shravikao ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages748
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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