SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 140
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 118 २.१६.२५ सुलक्षणा :- जंबूद्वीप के ऐरावत क्षेत्र में विंध्यपुर नगर के विध्यदत्त राजा की रानी थी। उसने नलिनकेतु नामक पुत्र को जन्म दिया । १२३ विशेष विवरण अनुपलब्ध है। पौराणिक / प्रागैतिहासिक काल की जैन श्राविकाएँ २.१६.२६ जयना :- चक्रवर्ती सम्राट् सहस्त्रायुध की रानी थी। उसने एक बार गर्भवती होने पर स्वप्न में प्रकाशमान स्वर्णशक्ति देखी । पुत्र का जन्म होने पर "कनकशक्ति" नाम रखा गया । १२४ विशेष विवरण अनुपलब्ध है। २.१६.२७ कनकमाला : कनकशक्ति की रानी थी । १२५ विशेष विवरण प्राप्त नहीं होता । २.१६.२८ बसंतसेना :- श्रीसार नगर के राजा अजितसेन तथा रानी प्रियसेना की पुत्री थी। पिता ने उसके अनुरूप वर न मिलने पर कनकशक्ति के साथ उसका विवाह कर दिया । १२६ वह वनमाला की प्रियसखी भी थी। विशेष विवरण अनुपलब्ध है। २. १६.२६ प्रियमती :- जंबूद्वीप के पूर्व महाविदेह में पुष्कलावती विजय की नगरी पुण्डरीकिनी के राजा धनरथ की रानी थी। एक बार रानी ने स्वप्नावस्था में गर्जन करता, बरसता, विद्युत प्रकाश फैलाता हुआ एक मेघखण्ड अपने मुँह में प्रवेश करते हुए देखा । स्वप्न के फलस्वरूप यथासमय प्रियमती ने मेघरथ नामक पुत्र को जन्म दिया । १२७ विशेष विवरण प्राप्त नहीं होता । २.१६.३० मनोरमा :- जंबूद्वीप के पूर्वमहाविदेह में पुष्कलावती विजय की पुंडरिकीनी नगरी के राजा धनरथ की रानी थी। एक बार महारानी ने एक ध्वजा पताका से युक्त सुसज्जित रथ अपने मुँह में प्रवेश करता हुआ देखा। तथा कालांतर में यथा समय दृढ़त नामक पुत्र को जन्म दिया ।२८ विशेष विवरण प्राप्त नहीं होता । २.१६.३१ प्रियमित्रा, मनोरमा :- सुमंदिरपुर के महाराजा निहतशत्रु की पुत्रियाँ थी । राजा धनरथ के पुत्र मेघरथ के साथ इन दोनों का विवाह संपन्न हुआ । प्रियमित्रा दृढधर्मी थी। उसने समय समय पर मेघरथ राजा से पुण्य और पाप फल के विपाक प्राणी को किस तरह प्राप्त होते हैं इसकी चर्चा की। १३० इससे उसकी धार्मिक रूचि स्पष्ट झलकती है। T २.१६.३२ सुमति :- महाराजा निहतशत्रु की पुत्री थी, राजा दृढ़रथ से विवाह हुआ था । १३१ विशेष विवरण प्राप्त नहीं होता । २.१६.३३ सुरसेना :- वह एक गणिका थी। एक बार महाराजा धनरथ के दरबार में वह एक कर्कुट (मुर्गा) लेकर आई। उसके मुर्गे के साथ युवराज्ञी मनोरमा के मुर्गे को लड़ाया गया । १३२ विशेष विवरण प्राप्त नहीं होता । . २.१६.३४ स्वर्णतिलका :- धातकी खंड के पूर्व ऐरावत क्षेत्र में वज्रपुर नगर था। वहाँ अभय घोष नाम का दयालु राजा था । उसकी रानी का नाम स्वर्णतिलका था। उसके दो पुत्र थे जिनका नाम विजय और वैजयन्त था । १३३ विशेष विवरण प्राप्त नहीं होता । २.१६.३५ पृथ्वीना :- वह स्वर्णद्रुम नगर के शंखराजा की पुत्री थी, उसका विवाह महाराजा अभयघोष के साथ हुआ था। वह बड़ी ही रूपवती एवं गुणवती भी थी, वह धर्मपरायणा श्राविका थी। एक बार एक तपस्वी ज्ञानी मुनिराज को देखकर उसने भक्तिपूर्वक वंदन किया, धर्मोपदेश सुना, संसार से विरक्त होकर दीक्षा धारण की । १३४ मुनि पर श्रद्धा और उनके उपदेश से पृथ्वीसेना ने अपना जीवन सफल बना लिया। २.१६.३६ वज्रमालिनी :- जंबूद्वीप के पूर्व महाविदेह में पुष्कलावती विजय की पुंडरिकिनी नगरी के महाराजा हेमांगद की रानी थी। उसने तीर्थंकर पुत्र जन्म के योग्य चौदह महास्वप्न देखे तथा "धनरथ' नामक तीर्थंकर पुत्र को जन्म दिया । १३५ इस पुण्यशालिनी माता ने अपने पुत्र की अनासक्ति को देखते हुए उन्हें त्याग मार्ग पर बढ़ाया और अपना जीवन सफल किया । २.१६.३७ मानसंवेगा :- वैताढ्य पर्वत की उत्तर श्रेणी में अलका नाम की नगरी के विद्याधरपति विद्युद्रथ की रानी थी ।१३६ विशेष विवरण प्राप्त नहीं होता । २.१६.३८ वेगवती :- वह विद्याधर विद्युद्रथ के पुत्र पराक्रमी सिंहरथ की पत्नी थी । १३७ विशेष विवरण प्राप्त नहीं होता । २.१६.३६ शंखिका :- पुष्करार्ध द्वीप के पूर्व भरत क्षेत्र के संघपुर नाम के बड़े नगर में राज्यगुप्त नामक गरीब कुलपुत्र की पत्नी थी। एक बार मुनि सर्वगुप्तजी से उपदेश सुनकर दरिद्रता निवारण हेतु उन्होंने उपाय पूछा। मुनि ने उन्हे सम्यक् तप का स्वरूप समझाया। दोनों ने तप प्रारंभ किया। पारणे वाले दिन मुनिवर धृतिधरजी को भक्तिपूर्वक आहार दान देकर लाभ लिया। मुनि सर्वगुप्तजी के पुनरागमन पर धर्मोपदेश सुनकर वह दीक्षित हुई। गुरु भक्ति से शंखिका ने अपने आत्मद्वीप को प्रज्वलित किया । तप भक्ति व सेवा का लाभ लिया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003610
Book TitleJain Shravikao ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages748
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy