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जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
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का सजन पूर्ण हुआ था। अतएव उस दिन किसी भी प्राणी का घात करना अन्याय है। मेरे पूज्य पिता जी ने ग्यारह वर्षों से अधिक समय तक इन नियमों का पालन किया है। रविवार को तो वे कभी भी मांसाहार नहीं करते थे। अतः मैं भी अपने राज्य में उपर्युक्त दिनों में जीव-हिंसा के निषेध की उद्घोषणा करता हूँ।" जिनसिंहसूरि (यति मानसिंह) आदि जैन गुरूओं के साथ भी वह घण्टों दार्शनिक चर्चा किया करता था।
उन्हें "युगप्रधान" उपाधि भी प्रदान की थी। कालांतर में जब उन्होंने विद्रोही शाहज़ादे खुसरो का पक्ष लिया तो जहाँगीर उनसे अत्यंत रुष्ट हो गया और उनके संप्रदाय के व्यक्तियों को अपने राज्य से भी निर्वासित कर दिया था। वैसे उसके शासनकाल में कई नवीन जैन मंदिर भी बने । अपने धर्मोत्सव मनाने और तीर्थयात्रा करने की भी जैनों को स्वतंत्रता थी। गुजरात आदि प्रांतों के जैनियों ने उसके प्रांतीय सूबेदारों से पशुवध-निरोधविषयक फरमान भी जारी कराये थे। सांभर के राजा भारमल और आगरे के श्री हीरानंदजी-मुकीम जैसे कई जैन सेठ उसके कपापात्र थे। श्री ब्रह्मरायमल्ल, श्री बनवारीलाल, श्री विद्याकमल, श्री ब्रह्मगुलाल, श्री गुणसागर, श्री त्रिभुवनकीर्ति, श्री भानुकीर्ति, श्री सुंदरदास, श्री भगवतीदास, कवि विष्णु, कवि नंद आदि अनेक जैन गहस्थ एवं साधु विद्वानों ने निराकुलतापूर्वक साहित्य रचना की थी। पण्डित श्री बनारसीदास की विद्वद्गोष्ठी इस काल में आगरा नगर में जम रही थी और यह जैन महाकवि अपनी उदार काव्यधारा द्वारा हिन्दु-मुस्लिम एकता को प्रोत्साहन दे रहे थे तथा अध्यात्म रस प्रवाहित कर रहे थे। ___ जहाँगीर के उत्तराधिकारी शाहजहाँ (ई.१६२८-५८) के समय में प्रतिक्रिया प्रारंभ हो गई थी और अकबर की उदार सहिष्णुता की नीति में उत्तरोत्तर पर्याप्त अंतर दष्टिगोचर होने लगा था।
अकबर के दरबार में धर्मपुरूष श्री ज्ञानचंदजी एवं श्री सिद्धिचंद्रजी की निरन्तर उपस्थिति एवं राजदरबारियों का उनके प्रति असाधारण सम्मानभाव इस तथ्य का द्योतक है कि मुगल सम्राट अकबर के उदार शासन में जैन धर्म निरन्तर वद्धि पर था। तत्कालीन इतिहासवेत्ताओं ने अकबर के उपासनागह में जिन धर्मों के प्रतिनिधियों का उल्लेख किया है, उनमें भी जैनियों के दोनों संप्रदायों का उल्लेख प्राप्त होता है। अकबर के ग्रंथागार में जैनधर्म से संबंधित पांडुलिपियाँ बड़ी संख्या में थी। सम्राट अकबर ने स्वयं मुनि श्री हीरविजय को एक हस्तलिखित धर्मग्रंथ की पांडुलिपि भेंट की थी।'
अकबर और हीरविजयसूरि के बीच में संपर्क स्थापित करानेवाली थी जैन श्राविका चंपा बहन। चंपाबहन की लम्बी तपस्या की पूर्णाहुति के उपलक्ष्य में निकाले गये जुलूस का कारण जानकर अकबर ने उस बहन की परीक्षा स्वयं अपने महल में कड़े प्रहरों के बीच रखकर की थी। चंपा बहन ने तीस दिन की तपस्या द्वारा बादशाह अकबर को आश्चर्य में डाल दिया था। चंपा बहन के धर्मगुरु हीर विजयसूरि के संपर्क में आकर अकबर ने स्वयं भी अहिंसा के मार्ग पर कदम बढ़ाया था।
मुगल शासनकाल में राजा भारमल सम्राट अकबर के विशेष कपा पात्र थे तथा उनके पिता श्री रणकाराव, सम्राट् की ओर से आबू प्रदेश के शासक नियुक्त थे। राजा भारमल की दैनिक आय एक लाख टका (रूपए) थी और स्वयं सम्राट् के कोष में वे प्रतिदिन पचास हज़ार टका देते थे। वे जैन धर्मानुयायी, उदार और असांप्रदायिक मनोवत्ति के विद्यारसिक श्रीमान् थे। धार्मिक कार्यों और दानादि में लाखों रूपए खर्च करते थे। वे सांभर के संपूर्ण इलाके के शासक थे। भट्टारक कविवर पाण्डे राचमल्ल (१६वीं शती) ने उनकी प्रेरणा से "छंदोविद्या" नामक महत्वपूर्ण पिंगलशास्त्र की रचना की थी। इसी प्रकार पंचाध्यायी, अध्यात्मकमलमार्तण्ड, समयसार की बालबोधटीका" की रचना की तथा साहु श्री टोडरमल जी के लिए "जंबूस्वामीचरित" की रचना की थी। ६.२ मुगलकाल की श्राविकाओं का जैन धर्म की प्रभावना में योगदान :___ आगरा के प्रसिद्ध गर्गगोत्रीय अग्रवाल जैन पार्श्व साहु के पुत्र का नाम साहु टोडरमल था। उनकी धर्मपत्नी का नाम कसूम्भी था। इनके चार पुत्र थे- ऋषभदास, मोहनदास, रूपचंद और लछमनदास । सारा परिवार अत्यंत धार्मिक व विद्यारसिक था। उन्होंने मथुरा नगर में प्राचीन जैन तीर्थ का उद्धार किया। ५१४ नवीन स्तूपों का निर्माण करवाया, १२ दिक्पाल आदि की स्थापना की तथा ई. सन् १५७३ में प्रतिष्ठोत्सव किया एवं चतुर्विध संघ को आमंत्रित किया था। उन्होंने आगरा नगर में भी एक भव्य जिन मंदिर बनाया था। जिसमें ई. १५६४ में हमीरी बाई नामक आत्मसाधिका ब्रह्मचारिणी रहती थी। ई. १५७६ में बागड़ देश निवासी हुमड़वंशी सेठ
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