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________________ 160 ने नारियों के जीवन में जागरण की ऐसी क्रांति उत्पन्न की, जिसने तुच्छ, हीन एवं अबोध समझी जाने वाली अबलाओं में भी उच्च भावनाओं को उद्बुद्ध कर दिया । निर्भीक एवं तत्वज्ञ श्राविका जयंति साधुओं के लिए प्रथम शय्यातर के रूप में प्रसिद्ध थी । विचरण करते हुए कौशांबी में जो भी नवीन साधु आते वे सर्वप्रथम जयंति के यहाँ पर वसति की याचना करते थे। मगध देश के महाराजा बिम्बसार (श्रेणिक) की दृढ़ धर्मी, प्रियधर्मी महारानी चेलना भ० महावीर स्वामी की परम भक्त थी जिसने राजा श्रेणिक को जैन धर्म का अनुयायी बनाकर जिन शासन की प्रभावना में सहयोग दिया। सुलसा श्राविका जैसी महावीर भक्त श्रमणोपासिका हुई जिसे कोई भी शक्ति धर्म मार्ग से विचलित नहीं कर सकी । श्रमणोपासिका रेवती बहुमूल्य तेल के गिर जाने के लिए नहीं, किंतु भिक्षा हेतु आए हुए मुनि के खाली लौटने पर रंज करती है। श्रमणोपासिका रेवती देवी की दृढ़ श्रद्धा अनुकरणीय है जो भिक्षा हेतु घर आये मुनि के खाली हाथ लौट से खेद खिन्न हुई परन्तु बहुमुल्य तेल जमीन पर गिर जाने से रंच मात्र भी दुःखी नहीं हुई। तपस्वी महावीर के पारणे में विशेष सहयोगिनी सुश्राविका 'नन्दा जी' एवं महारानी मृगावती का अवदान कभी भुलाया नहीं जा सकता । अन्तकृद्दशांग सूत्र में वर्णित प्रभु महावीर की अनन्य भक्त श्रेणिक महाराजा की १० महारानियाँ - काली, महाकाली, सुकाली, कृष्णा आदि ने जब रथमूसलसंग्राम नामक युद्ध में मारे गए अपने पुत्रों के विषय में भगवान् महावीर के श्रीमुख से सुना तो वे भोगों से पराङ्मुख होकर प्रभु के धर्म संघ में दीक्षित हो गई। उग्र तपश्चर्या से अपने जीवन को कुंदन बनाया तथा कर्मबंधनों को तोड़कर मुक्ति को प्राप्त हुई । कोशा, सुलसा, जयन्ती, अनंतमती, रोहिणी, रेवती आदि ऐसी ही प्रबुद्ध महिलाएँ थीं, जो किसी भी महारथी विद्वान से, बिना किसी झिझक के शास्त्रार्थ कर सकती थीं और अपनी प्रतिभा चातुर्य से वे उन्हें निरूत्तर कर सकती थीं। यह भगवान महावीर की नारी के प्रति उच्च - सम्मान की भावना का ही प्रतिफल था कि उनके संघ में जहाँ साधुगण १४००० थे। वहीं साध्वियों की संख्या ३६००० थीं और श्रावकों की संख्या जहाँ १ लाख और ५० हजार थी, वहीं श्राविकाओं की संख्या ३ लाख १८ हजार थी। भगवान महावीर के सिद्धांतों के प्रचार-प्रसार में इन महिलाओं ने उल्लेखनीय योगदान दिया। इस प्रकार भ० महावीर स्वामी का धर्म राजमहल वर्ग से लेकर झोंपड़ियों तक पहुंच चुका था । उसमें कल्याणकारी और मंगलकारी तत्व कूट-कूट कर भरे हुए थे । जन-मानस की दृष्टि को भौतिकवाद से हटाकर अध्यात्म की ओर खींचने में उसने अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया । अशांति और विषमता के कारणों का विश्लेषण कर उन्हें दूर करने का प्रयत्न किया और समाज में स्थायी शांति, समन्वय, सद्भाव तथा सहयोग का वातावरण निर्मित किया । यही कारण था कि महावीर का व्यक्तित्व और उनका धर्म आकर्षण का केंद्र बन चुका था । जनता के प्रत्येक वर्ग ने उसे स्वीकार किया, उसका प्रचार और प्रसार किया। अतः वह किसी संप्रदाय विशेष का धर्म न होकर जनधर्म बन गया । " ३. ६ तीर्थंकर भ० पार्श्वनाथ से संबंधित श्राविकाएँ : ३.६.१ श्रीमती लीलावती जी :- लीलावती क्षेमपुरी के सेठ धनंजय की धर्म पत्नी थी, इनके शुभदत्त नाम का पुत्र पैदा हुआ था। माता के धर्म संस्कारों के प्रभाव से वे पार्श्वसंघ के प्रथम गणधर बने थे । १२ ऐतिहासिक काल की जैन श्राविकाएँ ३.६.२ श्रीमती शान्तिमती जी :- शांतिमती सुरपुर के अधिपति कनककेतु राजा की रानी थी। इनके पुत्र का नाम ब्रह्म था जो पार्श्व संघ के चतुर्थ गणधर थे । १३ ३.६.३ श्रीमती रेवती जी :- रेवती क्षितिप्रतिष्ठ नगर के राजा महीधर की रानी थी, इनके पुत्र का नाम सोम था। माता के धर्म संस्कारों के पोषण से पुत्र सोम पंचम गणधर बने । रेवती ने पुत्र को सत्पथ पर लगाया तथा पुत्रवधू चम्पकमाला को भी धर्म किया और स्वयं भी धर्ममय जीवन व्यतीत किया । १४ में दृढ़ ३.६.४ श्रीमती सुंदरी जी :- पोतनपुर के राजा नागबल की महारानी सुंदरी थी । युवावस्था में प्रसेनजित राजा की पुत्री राजीमती से उसके पुत्र का विवाह हुआ था, भाई की मृत्यु से विरक्त होकर भ० पार्श्वनाथ के पास दीक्षित हुए, वें छठें गणधर बनें। ३.६.५ श्रीमती यशोधरा जी :- यशोधरा मिथिला नगरी के नमिराजा की रानी थी, इनके पुत्र का नाम वारिसेन था जो भगवान् पार्श्वनाथ के सातवें गणधर हुए। १६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003610
Book TitleJain Shravikao ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages748
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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