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जैन श्राविकाओं का बृहद इतिहास
२.२३.७२ मदनसेना :- भरूच नगर के राजा महाकाल की पुत्री तथा श्रीपाल कुँवर की दूसरी पत्नी थी। वह गुणवती थी। नवकार मंत्र की उपासिका थी।२५०
२.२३.७३ रयणमंजुषा :- रयणमंजुषा राजा कनककेतु की पुत्री तथा श्रीपाल की पत्नी थी। वह परम धर्मपरायणा थी। अपने दादा श्री द्वारा निर्मित श्री ऋषभदेव जिनालय में निरन्तर सुबह, दोपहर, शाम वह भक्ति भाव से पूजन करती थी। वह चौंसठ कलाओं में निपुण थी। प्रभु की आंगी कलात्मक ढंग से रचाती थी।२५१
२.२३.७४ गुणमाला :- गुणमाला राजा पशुपाल की पुत्री तथा श्रीपाल की पत्नी थी। उसके लिए ज्योतिषी ने भविष्यवाणी की थी, कि समुद्र के किनारे चंपावृक्ष के नीचे जो पुरूषरत्न सोता हुआ मिलेगा वही तुम्हारा पति होगा। वह श्रीपाल ही था, जिसके साथ गुणमाला का विवाह हुआ था |२५२ ।।
२.२३.७५ गुणसुंदरी :- गुणसुंदरी श्रीपाल की पत्नी थी। उसकी प्रतिज्ञा थी कि वीणा बजाने में जो मुझसे अधिक कुशल होगा, जो मुझे पराजित कर देगा, मैं उसी की पत्नी बनूंगी। परिणामस्वरूप वह श्रीपाल की पत्नी बनी।५३
२.२३.७६ त्रिलोक सुंदरी :- त्रिलोक सुंदरी श्रीपाल की पत्नी थी। वह सर्वगुणसंपन्न राजकन्या थी ।२५५
२.२३.७७ शृंगार सुंदरी :- श्रृंगार सुंदरी राजा धरापाल एवं रानी गुणमाला की पुत्री थी। उसकी प्रतिज्ञा थी कि काष्ठ की पुतलियों द्वारा पूछे गये प्रश्नों का जो सही उत्तर देगा, वह मेरा वर होगा। श्रीपाल ने प्रतिज्ञा पूर्ण की। राजा धरापाल ने अपनी पुत्री श्रृंगार सुंदरी का विवाह श्रीपाल के साथ किया था। उसकी पंडिता, विचक्षणा, प्रगुणा, निपुणा, दक्षा आदि पांच सखियों को भी राजा ने श्रीपाल को प्रदान कर दिया था ।२५५
२.२३.७८ तिलक सुंदरी :- तिलकसुंदरी श्रीपाल की पत्नी थी, विवाह से पूर्व तिलकसुंदरी को सर्प ने डस लिया था, अतः वह मृत घोषित की गई। किंतु श्रीपाल ने मंत्रादि से राजकुमारी को जीवित किया और उसका सारा जहर उतार दिया। अतः पिता ने खुश होकर तिलकसुंदरी का विवाह श्रीपाल के साथ कर दिया था ।२५६ २.२४ इक्कीसवें तीर्थंकर श्री नमिनाथ जी से संबंधित श्राविकाएँ :
२.२४.१ वप्रादेवी२५७ :- मिथिलानगरी के महाराजा विजय की महारानी वप्रादेवी की कुक्षी से इक्कीसवें तीर्थंकर श्री नमिनाथ जी का जन्म हुआ |२५८ माता वप्रादेवी ने चौदह प्रसन्नतादायक शुभ स्वप्न देखें । योग्य आहार, विहार और आचार से गर्भ का पालन किया। यथा समय उसने एक पुत्ररत्न को जन्म दिया। जब बालक गर्भ में था तब शत्रु सेना ने मिथिला नगरी को घेर लिया था। माता वप्रा ने राज्यमहलों की छत पर जाकर उन शत्रुओं की ओर सौम्य दृष्टि से देखा तो शत्रु राजा का मन परिवर्तित हो गया। इस प्रकार शत्रु राजाओं ने भी विनम्रता दिखाई अतः माता पिता ने बालक का सार्थक नाम नमिनाथ रखा। इस धर्म परायण महिला ने अपने पति एवं पुत्र को तपोमार्ग पर सहर्ष बढ़ने की अनुमति प्रदान की। स्वयं भी अनासक्त जीवन व्यतीत कर आत्म कल्याण किया।
२.२४.२ महिषी (मेरा)२५६ :- इक्कीसवें तीर्थंकर श्री भगवान् जी नमिनाथ के शासनकाल में दसवें चक्रवर्ती सम्राट् हरिषेण हुए थे। इसी भरतक्षेत्र के कांपिल्यपुर नगर में इक्ष्वाकुवंशीय महाराजा हरि हुए थे। महाराजा हरि की सर्वगुणसंपन्ना महारानी का नाम महिषी था|२६० महारानी ने चौदह स्वप्न देखे तथा समयानुसार चक्रवर्ती के समस्त लक्षणों से युक्त एक बालक को जन्म दिया। जिसका नाम रखा गया 'हरिषेण' । माता-पिता ने समस्त विद्याओं एवं कलाओं मे बालक को निपुण किया। माता के धर्म संस्कारों का ही प्रभाव था कि युवावस्था प्राप्त होने पर युवराज हरिषेण राजा बने । चक्ररत्न पैदा होने पर समस्त षट्खंड के चक्रवर्ती बने। तद् उपरान्त वैराग्य को प्राप्त कर संयम अंगीकार किया तथा अंत मे कर्मों को क्षय कर सिद्ध बुद्ध और मुक्त हुए।
२.२४.३ वप्रा देवी२६१ :- इक्कीसवें तीर्थंकर भगवान् श्री नमिनाथ जी के शासन काल में लम्बे समय के बाद ग्यारहवें चक्रवर्ती सम्राट् जयसेन हुए। मगध देश की राजगृही नगरी में विजय राजा राज्य करते थे, जिनकी शुभ लक्षणों वाली सद्गुणसंपन्ना महारानी थी वप्रा |२६२ वप्रा ने सुखपूर्वक शयन करते हुए मंगलकारी चौदह शुभ स्वप्नों के दर्शन किये तथा सुखपूर्वक ही यथासमय पुत्ररत्न
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