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जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
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के रूप में दिगंबर पंरपरा के प्रभावक आचार्य हुए। यह माता उमरावबाई के सुकत का ही सुप्रभाव था। १४ ६.११ श्रीमती वदनांजी - ई. सन् की २० वीं शती. ___राजस्थान के लाडनूं शहर के खटेड़ वंश के श्रीमान् झूमरमलजी की धर्मपत्नी का नाम श्रीमती वदनांजी था। उनकी नौ संतान थी, आठवें पुत्र आचार्य श्री तुलसी ने गणाधिपति के रूप में तेरापंथ धर्मसंघ को विकास के नवक्षितिज पर लाकर खड़ा कर दिया। सरल नम्र, धर्मस्वभावी वदनांजी स्वयं ५८ वर्ष की उम्र में पुत्र द्वारा दीक्षित हुई । यह इतिहास की विरल घटना है।* ६.१२ श्रीमती फूलांबाई - ई. सन् की १७ वीं शती.
___ गुजरात प्रदेशांतर्गत सूरत के समद्ध श्रीमाल श्रेष्ठी थे वीरजी बोरा। उनकी पुत्री फूलांबाई थी। फूलांबाई का एक पुत्र था लवजी । छोटी उम्र में ही पति का साया सिर से उठ गया, अतः फूलांबाई पुत्र सहित पिता के घर में रहने लगी। पुत्र लवजी को भी नाना से ही पिता का प्यार मिला ! वीरजी बोरां का समस्त परिवार दढ़ जैन धर्मी था। उस समय ऋषि बजरंगजी सूरत के प्रसिद्ध यति थे। वे लोंकागच्छ के थे। वीरजी बोरा का समस्त परिवार धर्म श्रवणार्थ उनके आश्रम में जाता था । फूलांबाई की प्रेरणा से पुत्र बजरंगजी यतिजी के पास जैनागमों का अभ्यास करने लगे। बुद्धिमान लवजी ने दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, आचारांग आदि शास्त्रों का अध्ययन किया। संसार से विरक्ति हुई, माता की, व नानाजी की अनुज्ञा से करोड़ो की संपत्ति के उत्तराधिकारी होने पर भी बजंरगजी यति के पास लवजी दीक्षित हो गए। आगे चलकर वे महान् क्रियोद्धारक बने। माता फूलांबाई स्वयं तो उपासिका थी ही, उसकी महान प्रेरणा के फलस्वरूप जिनशासन को क्रियोद्धारक ऋषि लवजी प्राप्त हुए। ६.१३ श्रीमती शिवादेवी जी - ई. सन् की १७ वीं शती.
सौराष्ट्र के जामनगर में दशाश्रीमाली गोत्रीय श्रीमान् जिनदासजी निवास करते थे। उनकी धर्मपत्नी का नाम श्रीमती शिवादेवी था। दोनों पति-पत्नी जैन धर्मोपासक थे, प्रज्ञासंपन्न थे। माता शिवादेवी ने विलक्षण पुत्र रत्न को जन्म दिया जो एक सहस्त्र श्लोक दिन भर में कंठस्थ कर लेते थे। वे अवधानकार भी थे। दो हाथ दो पैरों के सहारे चार कलमों से एक साथ लिख लेना उनकी विरल विशेषता थी। लोंकागच्छ के यति शिवजी के समीप दोनों पिता एवं पुत्र ने दीक्षा धारण की। पुत्र ने आगे चलकर आचार्य धर्मसिंह जी भ०. के नाम से क्रियाद्धार कर धर्म प्रभावना की। शिवादेवी ने पति एवं पुत्र को सहर्ष त्याग मार्ग पर बढ़ाया, स्वयं भी धर्ममय जीवन व्यतीत किया। ६.१४ श्रीमती डाही बाई जी - ई. सन् की १७ वीं-१८ वीं शती.
__ अहमदाबाद जिलान्तर्गत सरखेज ग्राम में भावसार गोत्रीय शाह जीवनदासजी रहते थे। उनकी धर्मपत्नी का नाम श्रीमती डाहीबाई था। घर का वातावरण धार्मिक था। माता ने भी जैन भगवती दीक्षा लेकर धर्म प्रभावना की। पुत्र धर्मदास ने जैन भागवती दीक्षा अंगीकार की। आचार्य धर्मदास जी का बाईस शिष्यों का दल बना जो बाईस संप्रदाय के नाम से जाना जाता है। माता श्रीमती डाहीबाई ने पुत्र को त्याग मार्ग पर बढ़ाकर जिन शासन का उपकार किया। अन्यत्र डाही बाई का नाम भी उपलब्ध होता
है।
६.१५ श्रीमती रूपादेवी जी - ई. सन् की १७ वीं शती.
राजस्थान के अंतर्गत नागौर क्षेत्र में श्रीमान् माणकचंदजी की धर्मपत्नी थी श्रीमती रूपा देवी। संपन्न एवं धार्मिक परिवार में उनके एक पुत्र का जन्म हुआ जो प्रभावशाली व्यक्तित्व से संपन्न था। श्रीमती रूपादेवी तथा माणकचंदजी ने पुत्र भूधर का विवाह सोजत निवासी शाहदलाजी रातड़िया मुथा की पुत्री कंचनदेवी से किया था। चतुर तथा शरीर से सुदढ़ भूधरजी बचपन में ही सैनिक शिक्षा प्राप्त करने की रूचि रखते थे। वे फौज में उच्च अधिकारी पद पर नियुक्त हो गए। इस पद पर वे कई वर्षों तक कार्य करने के पश्चात् आचार्य धन्नाजी के संपर्क में आए तथा उन्हीं के पास यथासमय दीक्षित हुए।* माता श्रीमती रूपादेवी ने अपने पुण्यप्रभाव से ऐसे होनहार पुत्र को पैदा किया।
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