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सोलहवीं से 20वीं शताब्दी की जैन श्राविकाएँ
दानवीर भामाशाह व ताराचंद जी आदि भी राज्य-सेवा में नियुक्त थे। ताराचंद जी भारी युद्धवीर, कुशल सैन्य संचालक और प्रशासक थे। वे अंत तक अपने राणा और स्वदेश की एकनिष्ठता के साथ सेवा करते रहे। सादडी ग्राम के बाहर ताराचंद जी ने सुंदर बारहदरी बनवाई थी, जिसमें उसकी चार पत्नियों की मूर्तियाँ पाषाण में उत्कीर्ण है। वीर भामाशाह राणा उदयसिंह के समय से ही राज्य के दीवान एवं प्रधान मंत्री थे। १५७६ ईस्वी में महाराणा प्रताप हल्दीघाटी के युद्ध में पराजित हुए। महाराणा ने स्वदेश
का परित्याग करने का निश्चय किया। राणा को भामाशाह ने मार्ग रोककर धैर्य बंधाया और पच्चीस हजार सैनिकों का बारह वर्षों - तक निर्वाह हो सके उतना धन राणा को समर्पित किया। भामाशाह की पत्नी परम दानवीर, उदार, पतिपरायणा और बुद्धिमति
सन्नारी थी। भामाशाह ने अपने हाथ की लिखी एक बही (पुस्तक) अपनी धर्मपत्नी को देकर कहा कि कोई राणाजी कष्ट में हो, तब इस द्रव्य से उनकी सहायता करें। मेवाड़ोद्धारक वीर भामाशाह का स्वर्गवास १६०० ईस्वी में हुआ। उदयपुर में आज भी उनकी समाधि विद्यमान है। सत्तरहवीं शताब्दी में संघवी तेजाजी के पुत्र संघवी गजूजी, उनके पुत्र संघवी राजाजी की पत्नि रयणदे से चार पुत्र हुए। उनमें सबसे छोटे संघवी दयालदास जी की सूर्यदे और पाटन दे दो पत्नियाँ हुई तथा पुत्र साँवलदास मगादे थी। पति की तरह ये सब महिलाएं भी जैन धर्मानुयायिनी थी, तथा अपने पति के सभी कार्यों में सदैव सहयोग करती थी।
मारवाड़ (मरूदेश) जोधपुर राज्य में जैन राजपुरूषों में सर्वप्रसिद्ध वंश मुहनौतों का रहा। मारवाड़ के राव रायपाल जी (१२४६ ईस्वी) के १३ पुत्र थे, जिनमें चौथे पुत्र मोहनलालजी की प्रथम पत्नी जैसलमेर के भाटी राव जोरावरसिंह की पुत्री थी। अन्य पत्नी श्रीमाल जातीय जीवणोत छाजूराम की पुत्री थी, ये श्राविकाएँ भी जैनधर्मानुयायिनी थी।
जैसलमेर स्थित तपपट्टिका की प्रशस्ति में एवं जैन इंस्क्रिपशंस ऑफ राजस्थान में निम्न उल्लेख प्राप्त होता है कि जैसलमेर के चोपड़ा परिवार में श्राविका श्रीमती पुंछुजी की पुत्री श्रीमती गेली देवी हुई थी। उसका विवाह शंखलाल गोत्रीय श्री अशराज जी से हुआ था। श्रीमती गेलीदेवी ने आबू एवं गिरनार आदि की संघयात्राएँ निकाली थी। वि. संवत् १५०५ में उसने एक तप-पट्टिका जैसलमेर में बनवाई थी। श्री मेरू सुंदर सूरि ने उसे लिखी। इस तपपट्टिका का विशाल शिलालेख ऊपर एक कोने की तरफ से कुछ टूटा हुआ है। इसकी लम्बाई २ फुट १० इंच और चौड़ाई १ फुट १० इंच है। इसमें बाई ओर प्रथम २४ तीर्थंकरों के च्यवन, जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान इन चार कल्याणक की तिथियाँ, कार्तिक वदी से अश्विन सुदी तक महीने के हिसाब से खुदी हुई हैं। तत्पश्चात् महीने के क्रम से तीर्थंकरों के मोक्ष कल्याणक की तिथियाँ भी दी गई है। दाहिनी तरफ प्रथम छ:, तपों के कोठे बने हुए हैं तथा इनके नियमादि खुदे हुए हैं। इसके नीचे वज़ मध्य तपों के नकशे हैं। एक तरफ श्री महावीर तप का कोठा भी खुदा है। इन सबके नीचे दो अंशों में लेख है। प्रस्तुत तप पट्टिका जैसलमेर स्थित श्री संभवनाथ जी के मंदिर की है।
___ अजमेर स्थित श्री शांतिनाथ मंदिर की एक प्रशस्ति में उल्लेख आता है कि सोलहवीं शताब्दी में श्राविका श्रीमती माणिकदे, श्रीमती कमलादे, श्रीमती पूनमदे आदि ने शत्रुजय महातीर्थ की श्रीसंघ सहित यात्रा की तथा अपने धन का सदुपयोग किया। प्रस्तुत प्रशस्ति में यह भी उल्लेख आता है कि श्राविका श्रीमती गेली ने इसी समय में शत्रुजयादि तीर्थावतार की पट्टिका बनवाई थी। तोरण सहित नेमिनाथ भगवान् का परिकर भी बनवाया था। तीर्थंकरों के सभी कल्याणकों की तिथियों का निर्देश करनेवाली एक तपपट्टिका भी बनवाई थी। इसी प्रकार उसने अष्टापद महातीर्थ का प्रासाद बनवाया तथा मूलनायक श्री कुंथुनाथजी, श्री शांतिनाथजी आदि प्रमुख चौबीस तीर्थंकरों की अनेक प्रतिमाओं का निर्माण करवाया। जिसकी प्रतिष्ठा उसने आचार्य श्री जिनचंद्रसूरीजी एवं श्री जिनसमुद्र सूरीजी के सान्निध्य में करवाई थी। इसी शती में व्रतधारिणी सश्राविका नाथीबाईजी ने संस्कारवान् धर्मप्रभावक आचार्यजी हीरविजयसूरि को जन्म देने का सौभाग्य प्राप्त किया था।
सोलहवीं शती में आगरा की एक श्राविका श्रीमती कसूंभीबाई हुई थी। श्रीमती नायकदे, श्री हेमराज पाटनी की पत्नी श्रीमती हमीरदे, श्रीमती नारंगदे, श्रीमती मोहनदे, श्रीमती रत्नाबाई, लाहौर नगर निवासी श्रीमान् हेमराज जैन की पत्नी श्रीमती लटकीबाई आदि धर्मनिष्ठ सुश्राविकाएँ हुई थी। मेवाड़ के राणा उदयसिंह को राज्यसिंहासन पर बिठाने में जिनका महत्वपूर्ण सहयोग था, वह थी वीरांगना पन्ना धाय! पन्ना धाय ने अपने पुत्र का बलिदान किया, तथा उदयसिंह के प्राणों की रक्षा की। यह इतिहास की एक विरल घटना है। इस काल में श्रीमती सूर्यदे, श्रीमती पाटनदे, मगादे आदि जैनधर्मानुयायिनी सुश्राविकाएँ हुई थी। इस काल में विशेष रूप से जर्मन जैन श्राविका चारलोटे क्रॉस का चरित्र चित्रण ग्रहण किया है, जिसने जर्मन मूल में जन्म लेकर भी जैन श्राविका
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