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जन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
परिवार धर्मपरायण था। इस परिवार ने कई नवीन जिनमंदिर बनवाए थे तथा पुराने मंदिरों का जीर्णोद्धार कराया था। लाहौर नगर निवासी श्रीमान् हेमराजजी जैन की पत्नी श्रीमती लटकी देवी थी। उनके पुत्र श्री भगवानदासजी की धर्मात्मा पत्नी हेवरदे थी तथा उनके पुत्र श्री हीरानंदजी की श्रीमती शहज़ादीदेवी, श्रीमती रामों देवी और श्रीमती दयादेवी तीन पत्नियाँ थी। इनमें से श्रीमती दया देवी विशेष सुशीला, दानशील, विनयी एवं धर्मात्मा थी । इस प्रकार दष्टव्य है कि मुगलकाल में जैन धर्म का प्रचार बहुत था, तथा जैन श्राविकाओं का धर्म के प्रति पूरा समर्पण था । *
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मेवाड़ में सुप्रसिद्ध परम प्रतापी महाराणा संग्रामसिंह हुए थे। उस समय महाराणी की प्रेरणा से भट्टारक श्री प्रभाचंद्रजी, मण्डलाचार्य श्री धर्मचंद्रजी आदि के सहयोग से विपुल साहित्य सजन हुआ था। कर्नाटक से आये आचार्य श्री नेमिचन्द्रजी ने चित्तौड़ में श्रावक जिनदासजी द्वारा निर्मित श्री पार्श्वनाथ जिनालय में ई. १५१५ में "गोम्मटसार" की संस्कृत टीका रची थी। ज्ञात्तव्य है कि ये नेमिचन्द्रजी गोम्मटसार के रचयिता श्री नेमिचन्द्रजी से भिन्न थे। राज्य में अनेक जैन लोग उच्चपदों पर आसीन थे । यथा कुम्भलनेर का दुर्गपाल श्रीमान् आशाशाह, रणथम्भौर का दुर्गपाल श्री भारमलजी कावड़िया, राणा का मित्र श्रीमान् तोलाशाह आदि । श्री बप्पभट्टसूरि द्वारा आम राजा जैन धर्म में दीक्षित किए गए ग्वालियर के राजपूत श्री आमराज की वैश्यपत्नी से पैदा हुआ पुत्र राजकोठारीजी के नाम से प्रसिद्ध हुआ था, और ओसवाल जाति में सम्मिलित हुआ था ऐसी अनुश्रुति है। उसका एक वंशज श्री सारणदेव था, जिसकी आठवीं पीढ़ी में श्रीमान् तोलाशाह हुआ जो राणा सांगा का परम मित्र था । वह बहुत प्रतिष्ठित, न्यायी, विनयी, ज्ञानी और धनी था तथा याचकों को हाथी, घोड़े वस्त्राभूषण, आदि प्रदान कर कल्पवक्ष की भांति उनका दारिद्र्य नष्ट कर देता था, वह जैनधर्म का दढ़ अनुरागी था । तोलाशाह का पुत्र कर्माशाह ( कर्मसिंह) राणा सांगा के पुत्र रत्नसिंह का मंत्री था । श्रीमान् तोलाशाह ने विपुलधन व्यय करके शत्रुंजय तीर्थ का उद्धार भी करवाया था । रत्नसिंह की मृत्यु के बाद उसका छोटा भाई विक्रमाजीत गद्दी पर बैठा। वह अयोग्य था तथा उससे छोटा भाई उदयसिंह नन्हा बालक था। अतएव राज्य के सरदारों ने विक्रमाजीत को गद्दी से हटाकर दासीपुत्र बनवीर को राणा बना दिया। वह बड़ा दुराचारी और निर्दयी था । उसने विक्रमादित्य की हत्या कर दी, और रात्री में उदयसिंह की भी हत्या करने के लिए महल में पहुँचा । उदयसिंह की परम स्वामीभक्त पन्ना धाय ने अपनी तात्कालिक बुद्धि द्वारा स्वयं के पुत्र का बलिदान देकर छल से उदयसिंह की प्राण-रक्षा की और रातों रात विश्वस्त सेवकों के साथ राजकुमार को लेकर चित्तौड़ से बाहर हो गई। इधर उधर आश्रय के लिए भटकते हुए अन्ततः वह दुर्गपाल श्री आशाशाहजी देपरा नामक जैनी के पास गयी। प्रारंभ में तो वह भी बालक को शरण देने में हिचकिचाया, किंतु उसकी वीर माता के द्वारा प्रेरित करने पर उसने उदयसिंह को अपना भतीजा कहकर प्रसिद्ध किया, तथा कुछ समय उपरान्त उदय सिंह को चित्तौड़ के सिंहासन पर आसीन किया। इस प्रकार वीर माता और वीर आशाशाह ने राणावंश की रक्षा की तथा मेवाड़ पर प्रशंसनीय उपकार किया
था ।
जालौर के चौहान नरेश युद्धवीर सामंत सिंह देवड़ा की संतति में अविस्मरणीय है मारवाड़ के जेसलजी बोथरा का पुत्र बच्छराज, बड़ा चतुर, साहसी और महत्वाकांक्षी था। वह राव बीका का प्रमुख परामर्शदाता और दीवान था । उसने बीकानेर में अपना आवास बनाया था। बच्छराज के वंशज ही बच्छावत कहलाये। मारवाड़ के मुहणोत, भण्डारी आदि कई प्रसिद्ध जैनवंशों का उदय भी इसी समय के लगभग हुआ। उन्होंने राज्य के प्रतिष्ठित पदों पर कार्य करते हुए राज्य उत्कर्ष में भारी सहयोग दिया । डूंगरपुर-बांसवाड़ा, बूंदी, नागौर आदि नगरों में भी उस समय अनेक जैन परिवार निवास करते थे ।
उत्तर मध्यकाल में राजस्थान में मेवाड़ जोधपुर, बीकानेर, जयपुर, बूंदी आदि प्रमुख राजपूत राज्य थे । इन राज्यों के नरेश बहुधा उदार और धर्मसहिष्णु थे। उनके द्वारा शासित क्षेत्रों में जैनों की स्थिति अपेक्षाकृत श्रेष्ठतर थी। उन्हें धार्मिक स्वतंत्रता भी कहीं अधिक थी। जैन मुनियों, यतियों और विद्वानों का राजागण आदर करते थे। मंदिर आदि निर्माण करने और धर्मोत्सव मनाने की भी जैनों को खुली छूट थी। मुख्यतया साहूकारी, महाजनी, व्यापार और व्यवसाय जैनों की वत्ति थी और इन सब क्षेत्रों में प्रायः उनकी प्रधानता थी। इसके अतिरिक्त उक्त राज्यों के मंत्री, दीवान, भण्डारी, कोठारी आदि अन्य उच्च पदों पर जैनी ही नियुक्त होते थे । अनेक जैनी तो भारी युद्धवीर, सेनानायक, दुर्गपाल तथा प्रान्तीय, प्रादेशिक, या स्थानीय शासक भी थे। मेवाड़ राज्य में चित्तौड़ पर १५६७ ईस्वी में सम्राट् अकबर का अधिकार हो जाने पर राणा सांगा ने उदयपुर नगर बसाकर उसे ही अपनी राजधानी बनाया। इस नगर के निर्माण एवं उदयसिंह के राज्य को सुगठित करने में मंत्री राजा भारमल का पर्याप्त योगदान था। उनके पुत्र
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