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जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
प्राक्कथन
विश्व की प्राचीन संस्कृतियों में भारतीय संस्कृति का अपना एक विशिष्ट स्थान है। इसका अपना इतिहास है, अपनी सभ्यता और संस्कृति है जो विभिन्न विचारधाराओं के समन्वय से निर्मित हुई है। भारत के प्राचीन इतिहास के विभिन्न स्रोत हैं, जिनमें जैन, बौद्ध और वैदिक परंपरा के धर्म और इनमें वर्णित घटनाओं के विवरण प्रमुख हैं। इन ग्रंथों से विभिन्न काल की धार्मिक, राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक स्थितियों का ज्ञान होता है, अतः भारतीय संस्कृति के सम्यक् अध्ययन हेतु तीनों परंपराओं के प्राचीन ग्रंथों का अध्ययन आवश्यक है। संपूर्ण भारतीय संस्कृति दो धाराओं में विभक्त है, वह है, (प) ब्राह्मण एवं (पप) श्रमण
ब्राह्मण-संस्कृति वेद को प्रमाण मानती है, अतः इसे वैदिक परंपरा भी कहते हैं । वैदिक परंपरा में चतुर्विध वर्ण व्यवस्था है यथा ब्राह्मण, वैश्य, शूद्र एवं क्षत्रिय । वैदिक परंपरा में मान्य चार पुरूषार्थ हैं- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष । "अर्थ" का आशय है- जीवन जीने के आवश्यक साधनों की उपलब्धि और "काम" का अर्थ है- पाँच इंद्रियों के विषयों का सेवन । "धर्म" का कार्य है, अनावश्यक इच्छाओं को नियंत्रित करना और "मोक्ष" अर्थात् सम्यग् ज्ञान, दर्शन, चारित्र की पूर्णता ।
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श्रमण-संस्कृति में जैन एवं बौद्ध संस्कृति का समावेश है। जैन धर्म, संस्कृति और साहित्य की अजस्रधारा भारत में अत्यंत प्राचीनकाल से ही समृद्ध रूप में प्रवाहित है। प्राचीन काल से अनेक तीर्थंकरों ने इस संस्कृति को अक्षुण रूप से प्रवाहित रखा है। श्रमण-संस्कृति में चतुर्विध संघ व्यवस्था है यथा श्रमण, श्रमणी श्रमणोपासक एवं श्रमणोपासिका। वर्तमान में तीर्थंकर न होने पर भी चतुर्विध संघ का अस्तित्व बना हुआ है और परंपरागत मान्यता है कि पंचम काल के अंतिम समय तक वह अवश्य बना रहेगा। तीर्थंकरों द्वारा कथित उपदेश "आगम" कहलाते हैं। आगमों में जिस आचार का निर्देश किया गया है, उस आचरण के अनुरूप चलना इस चतुर्विध संघ का कर्त्तव्य है । चतुर्विध- संघ व्यवस्था की मुख्य आधार शिला है आचरण । श्रमण - श्रमणियों के पाँच महाव्रत रूप आचार हैं और श्रमणोपासक तथा श्रमणोपासिकाओं के बारह अणुव्रत रूप आंचार हैं। चतुर्विध संघ के लिए चतुर्विध मार्ग हैं, जिनसे मोक्ष रूपी लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है, वे हैं सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र एवं सम्यक्तप । वर्तमान में चतुर्विध संघ इसके परिपालन में प्रयत्नरत है। बौद्ध परंपरा में भी संघ के चार प्रकार हैं I
यह बिल्कुल स्पष्ट है कि जैन परंपरा में जहाँ श्रमण श्रमणी महाव्रती हैं वहाँ जैन श्रावक श्राविका अणुव्रती हैं। अतः संघीय दृष्टि से जो महत्व श्रमणी का है, वही महत्व श्राविका का भी है। यद्यपि चतुर्विध जैन धर्म संघ के चार स्तम्भ - साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका में चारों वर्गों का महत्त्व बराबर हैं। लेकिन मेरी दृष्टि में ऊपरलिखित तीनों स्तंभों के लिए श्राविका संघ आधारभूत है। तीनों संघ श्राविका - संघ के बिना अपनी गतिविधियों को सम्पन्न करने में असमर्थ हैं । श्राविकाएं ही श्रमण-- श्रमणियों की सेवा सुश्रुषा का पूरा ध्यान रखती हैं तथा गृहस्थ जीवन से जुड़ी समस्त गतिविधियों का भी वे कुशलता से निर्वाह करती हैं। आश्चर्य है कि ऐसी मंगलमूर्ति श्राविकाओं का क्रमबद्ध इतिहास आज अनुपलब्ध है तथा उनका उल्लेख नहींवत् है । साध्वी संघ में दीक्षित होने के कारण हमारा संपर्क श्राविकाओं से ही बना रहता है। जब शोध के विषय चयन की बात सामने आई तब प्रत्यक्ष सहयोगिनी इन श्राविकाओं द्वारा समाज,
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