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जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
थी। जिसके विवाह के विषय में चिंतन करते हुए रूक्मिणी ने उसे अपने पुत्र प्रद्युम्नकुमार के योग्य समझा । रूक्मिणी द्वारा प्रेषित विवाह प्रस्ताव की रूक्म ने उपेक्षा की, परन्तु विद्या एवं बुद्धिबल से प्रद्युम्नकुमार ने वैदर्भी को मां के समक्ष उपस्थित किया। रूक्मिणी ने प्रसन्नतापूर्वक समारोह के साथ दोनों का विवाह संपन्न किया तथा अपनी इच्छा पूर्ण की २७६ कालांतर मे वैदर्भी से धार्मिक सुसंस्कारी पुत्र अनिरूद्धकुमार का जन्म हुआ । २७६
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२.२५.१७ देवकी° :- देवकी मुक्तिकावती नगरी के राजा देवक की पुत्री एवं वसुदेव की पत्नी थी । २८१ देवकी का वैवाहिक जीवन संघर्षों से ही प्रारंभ हुआ । देवकी के सातवें पुत्र द्वारा कंस की मृत्यु का वृत्तांत जीवयशा ने अतिमुक्त अणगार द्वारा सुना । तब से देवकी का जीवन चारों ओर से संकटों से घिर गया। कंस के कठोर निग्रह में उसे रखा गया। देवकी ने छः बार गर्भ का भार ढोया किंतु संतान प्राप्ति का सुख नहीं उठा पायी। सातवी बार जब उसने गर्भ धारण किया, तब उसे शुभ संकेत प्राप्त हुए । वासुदेव के जन्मसूचक सात मंगलकारी स्वप्न उसने देखे । यथा समय तेजस्वी पुत्र रत्न को जन्म दिया। देवकी ने वसुदेव से सलाह की, तथाकथित पुत्र का संरक्षण किया जो श्रीकृष्ण के नाम से प्रसिद्ध हुआ । किंतु श्रीकृष्ण के पालन पोषण से देवकी वंचित रही । अंत में आठवें पुत्र गजसुकुमाल की बाल क्रीडाओं से देवकी ने अपने मन की खुशी पाई तथा दिल की इच्छाओं को पूर्ण किया देवकी बाईसवें तीर्थंकर भगवान् अरिष्टनेमि की श्रमणोपासिका थी । एक दिन देवकी ने एक समान रूप कांति वाले छः अणगारों को आहार दान दिया । तथा अतिमुक्तक मुनि की वाणी की सत्यता को प्रमाणित करने हेतु अरिष्टनेमी प्रभु के चरणों में पहुँचकर अपनी शंका का समाधान किया यह उल्लेख अन्तकृद्दशांग सूत्र में उपलब्ध होता है। अरिष्टनेमी प्रभु ने बताया कि सुलसा के द्वारा पालित छः पुत्र यही छः अणगार हैं जो तुम्हारे अंगजात है। तथा हरणैगमेषी देव की कपा से यह संभव हुआ है यह माया थी ऐसा जानकर देवकी अत्यंत प्रफुल्लित हुई। उसका पुत्रस्नेह उमड़ पड़ा। छः एक समान कांतिवाले अणगार पुत्रों को वंदन - नमन कर वह स्वस्थान लौट आई। देवकी के मातृत्व के प्रति श्रीकृष्ण सदा नतमस्तक थे। धर्मपरायणा देवकी ने उत्कृष्ट परिणामों से तीर्थंकर नाम कर्म का उपार्जन किया जिससे देवकी का जीव आगामी उत्सर्पिणीकाल मे मुनिसुव्रत नामक ग्यारहवां तीर्थंकर बनेगा |२८२
२.२५.१८ शिवादेवी :- शिवादेवी शौर्यपुर नगरी के राजा समुद्रविजय की महारानी २८४ तथा ऐतिहासिक महापुरूष तीर्थंकर भगवान जी अरिष्टनेमि की माता थी। उनके गर्भ में आगमन पर शिवादेवी ने चौदह स्वप्न देखे थे। साथ ही अरिष्ट रत्नमय चक्र नेमि के दर्शन किये थे। शिवादेवी माता के अन्य पुत्र सत्यनेमि, दृढ़नेमि और रथनेमि थे। २८५ बाईसवें तीर्थंकर भगवान अरिष्टनेमी की इच्छा के अनुसार वात्सल्यमयी माता ने उन्हें त्याग के पथ पर बढ़ाया तथा स्वयं भी धर्ममय जीवन व्यतीत किया ।
२.२५.१६ राजीमती :- राजीमती भोजराज की पौत्री उग्रसेन की पुत्री तथा सत्यभामा की छोटी बहन थी । वह सुशीला, सदाचारिणी, बहुश्रुता तथा अनिंद्यसुंदरी थी। सर्वलक्षण संपन्न समुद्रविजय के पुत्र व श्री कष्ण के चचेरे भाई अरिष्टनेमि से उसका विवाह तय हुआ था । विशाल बारात उग्रसेन के प्रांगण की तरफ बढ़ रही थी। तभी राजीमती की दाहिनी बाहु और दाहिनी आंख फड़क उठी। आशंका से वह सिहर उठी। उसने तत्काल सुना कि नेमिनाथ ने पशुओं की दयावश बारात लौटा ली है ।२८६ अपने प्रीतम के विरह का समाचार सुनकर राजीमती अत्यंत व्याकुल हुई। परिजनों के समझाने पर भी राजमती अन्य के साथ विवाह करने तैयार नहीं हुई । अरिष्टनेमि के छोटे भाई रथनेमि भी राजीमती के सौंदर्यवश कामज्वर से पीड़ित थे। राजीमती ने अपने प्रियतम अरिष्नेमि के दर्शनार्थ गिरनार पर्वत की ओर विहार कर दिया (चलपड़ी)। अरिष्टनेमि भगवान से उसने पिछले नौ जन्मों की प्रीत इस जन्म में साध्वी बन कर निभाई। अपना प्रयोजन सिद्ध कर लिया । राजीमती ने रथनेमि को समझाने के लिए दूध का गिलास मंगवाया और पी लिया। एक सुवर्ण थाली मंगवाई। और वमन करने के लिए मदनफल खाया । थाली में दूध का वमन करके रथनेमि को पीने के लिए कहा। रथनेमि नाराज हुए। राजीमती ने मधुर शब्दों में कहा। मैं भोजराज कुल की पुत्री हूँ तुम अंधकवृष्णि कुल के पुत्र हो । अगन्धन कुल के सर्प की भांति अग्नि में जलना पसन्द करो वरन वमन किए हुए विष को पुनः ग्रहण करना नहीं। मैं भी अरिष्टनेमि की परित्यक्ता हूँ, आप मुझे क्यों ग्रहण कर रहे हो? तथा अधमतापूर्ण पशुता का अनुगमन कर रहे हो? राजीमती की सतीत्वपूर्ण फटकार से रथनेमि निराश होकर लौट गया । २८७ राजीमती का विवेक जाग्रत हुआ उसने स्वयं दीक्षा पाठ पढ़ा। उस नारी आदर्श की जगमगाती दीप शिखा, शील की साक्षात प्रतिमूर्ति राजीमती का निर्मल जीवन प्रेरणास्पद एवं वंदनीय है उन्हें सौ-सौ बार नमन - नमन - नमन ।
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