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जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
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२.२५.३४ धारिणी :- धारिणी द्वारिका नगरी के राजा वसुदेव की रानी थी। उसके दो पुत्र थे :- दारूक कुमार और अनाधृष्टि कुमार।३०४
२.२५.३५ नीलयशा :- नीलयशा मातंग विद्याधर वंश परंपरा के राजा प्रहसित के पुत्र राजकुमार सिंहदाढ़ (सिंहदृष्ट्र) की पुत्री थी तथा वसुदेव को विद्याएं सीखने हेतु प्रेरित ही नहीं किया, किंतु सिखाने हेतु प्रयत्नशील भी रही।३०५
२.२५.३६ दमयंती :- दमयंती विदर्भ देश में कुण्डिन नगर के राजा भीमरथ तथा रानी पुष्पदंती की कुक्षी से पैदा हुई थी। रानी ने स्वप्न में दावाग्नि से भयभीत एक श्वेत वर्ण के हाथी को राजभवन में प्रवेश करते हुए देखा। अतः इस आधार पर दवदंती नाम रखा जो आगे चलकर दमयंती के रूप में प्रसिद्ध हुआ। वह रूपवती, गुणवती, नवतत्वों की ज्ञाता, समस्त कलाओं में निपुण तथा जैनधर्म की उपासिका थी। उसका विवाह कोशला नगरी के इक्ष्वाकुवंशीय निषध नरेश और सुंदरा रानी के सुपुत्र युवराज नल के साथ संपन्न हुआ। किसी समय नल ने अपने भाई कुबेर के साथ जुआ खेलते हुए सब कुछ खो दिया। वनवास की शरण ग्रहण की। दमयंती भी पति का अनुगमन कर वनवासिनी हई। उसने बीहड जंगलों को वीरांगना की तरह पार किया। एक दिन जब वह सोई हुई थी तब नल उसे अकेली छोड़ कर अन्यत्र चला गया। दमयंती ने इस अन्तराल में अपनी वीरता से डाकूसेना को भगाया और राक्षस को प्रतिबोध दिया। अनेक संकटों को पार कर अन्तोगत्वा वह अपनी मौसी रानी चंद्रयशा की पुत्री राजकुमारी चंद्रवती के साथ रहने लगी। रानी के साथ वह भी प्रतिदिन याचकों को दान देती थी। याचकों से अपने पति के विषय में पूछती थी। इसी बीच एक बार दमयंती के माता पिता के द्वारा भेजे हुए अनुचर हरिमित्र ने दमयंती को देखकर पहचान कर उससे बातचीत की, जिसे चंद्रयशा ने सुन लिया। उसने अपनी भानजी को ससम्मान यथायोग्य वस्त्राभूषण पहनाये तथा उसके पिता के घर भेज दिया। दमयंती के पिता ने पुत्री दमयंती के पुनर्लग्न का आयोजन रखा, नल भी वहाँ कूबड़े के रूप में उपस्थित हुआ। कूबड़े बने हुए नल राजा को पहचान कर उनके गले में दमयंती ने वरमाला पहना दी। नल अपने मूल रूप में प्रकट हुआ। कालांतर में अपनी शक्ति से भाई कुबेर को पराजित कर नल ने बहुत वर्षों तक राज्यसुख भोगा। अंत में नल और दमयंती प्रव्रजित हुए ।३०६ विपत्ति में भी श्राविका दमयंती ने अपने शील एवं धैर्यता को नहीं छोड़ा। उनका जीवन नारी जगत के लिए प्रेरणा प्रदीप है तथा सोलह सतियों में आज उनका नाम आदरणीय, पूजनीय एवं वंदनीय है।
२.२५.३७ गंधर्वदत्ता (गंधर्वसेना) :- गंधर्वसेना अंगदेश की राजधानी चंपानगरी के सेठ चारूदत्त की पुत्री थी, जो संगीत, नत्य एवं वीणावादन में अत्यंत निपुण थी। गंधर्वसेना की प्रतिज्ञा के अनुसार वासुदेव ने घंटों तक गंधर्वसेना को गाने बजाने में सहयोग दिया, फलस्वरूप प्रसन्नमन से गंधर्वसेना ने वसुदेव के गले में वरमाला डाली तथा सेठ ने पुत्री का विवाह वासुदेव के साथ किया।३०७ गंधर्वसेना ने अपने जीवन में कला को सम्माननीय स्थान प्रदान किया था।
२.२५.३८ श्यामा और विजया :- चंपानगरी के संगीताचार्य सुग्रीव तथा यशोग्रीव की पुत्रियाँ थी श्यामा और विजया, जिनका विवाह वसुदेव के साथ संपन्न हुआ था।०८
२.२५.३६ पद्मावती : पद्मावती कोल्लयर नगर के राजा पद्मरथ की पुत्री थी। वह कला में निपुण थी। वह वसुदेव द्वारा निर्मित श्रीदाम की सुंदर पुष्पमाला को देखकर अत्यंत प्रसन्न हुई। मंत्री ने महल में बुलाकर वसुदेव से हरिवंश चरित्र सुना, तथा राजा ने नैमित्तिक की भविष्यवाणी के अनुसार पद्मावती का विवाह वसुदेव के साथ किया।३०६
२.२५.४० कनकवती :- कनकवती पेढालपुर के प्रतापी राजा हरिश्चंद्र और रानी लक्ष्मीवती की आत्मजा थी। जो चौंसठ कलाओं में निपुण परम मेधावी थीं। उसके स्वयंवर में उसके पूर्वभव के पति कुबेर देव रूप में उपस्थित हुए थे। कुबेर के दूत बनकर आए वसुदेव को कनकवती ने पहचान लिया, जब वसुदेव ने कुबेर से संबंध स्थापित करने के लिए कहा, तब कनकवती ने स्पष्ट कहाः- देव और मनुष्य के विवाह संबंध सर्वथा अनुचित हैं। अतः कनकवती वसुदेव की पत्नी बनी। कनकवती उसी भव में मोक्ष जानेवाली चरम शरीरी आत्मा है ऐसा कुबेर का कथन था।३१०
२.२५.४१ अटवीश्री :- अटवीश्री शोभा नगर के शांति नामक सामंत की भार्या तथा सत्यदेव की जननी थी। अमितमणि गणिनी से शुक्लपक्ष की प्रतिपदा और कृष्ण पक्ष की अष्टमी के दिन पाँच वर्ष तक निराहार रहने का नियम लिया था। पति पत्नी दोनों ने मुनियों को शुद्ध भावों से आहार देकर पंचाश्चर्य प्राप्त किया था।३११
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