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________________ 170 ऐतिहासिक काल की जैन श्राविकाएँ ३.७.३२ बहुलिका जी : बहुलिका सानुयष्टिक ग्राम के गहस्थ आनंद की अनेक दासियों में से एक थी। वह अपने परिश्रम, कार्यकुशलता तथा सेवा भाव के लिए प्रसिद्ध थी। एक बार प्रभु महावीर भिक्षा के लिए आनंद श्रेष्ठी के घर पर आए। बहुला अवशिष्ट भोजन को एक ओर रखकर बर्तन साफ कर रही थी। अपने द्वार पर मुनि को देखकर, उसने अत्यंत भक्ति से अवशिष्ट भोजन सामग्री महावीर को दी। इस दान के प्रभाव से श्रेष्ठी के घर पांच दिव्य प्रकट हुए, तथा बहुला को दासत्व से मुक्ति मिली, उसने प्रभु महावीर की उपासिका बनकर शेष जीवन व्यतीत किया। यही इसका महत्वपूर्ण योगदान था।०६ ३.७.३३ श्रीमती जी : श्रीमती वसंतपुर के सेठ देवदत्ता एवं सेठानी धनवती की पुत्री थी तथा आदर्शकुमार की पत्नी थी। एक बार सखियों के संग पति वरण का खेल खेलती हुई श्रीमती ने खम्भा समझकर कोने में ध्यानावस्थित मुनि को पति चुन लिया तथा अंत तक अपने संकल्प पर दृढ़ रही। आर्द्रकुमार मुनि ने प्रथम तो मना किया, किंतु आग्रहवश, भोगावली कर्म के उदय वश, श्रीमती से विवाह किया। उनके एक पुत्र पैदा हुआ। पति द्वारा पुनः दीक्षित होने का संकल्प सुनकर उसने चरखे पर सूत कातना प्रारम्भ किया। स्वावलंबी बनकर उसने अपने पुत्र का लालन-पालन किया, धर्म की आराधना करते हुए अपना शेष जीवन व्यतीत किया। नारी को पुरुष आश्रित न रहकर स्वावलंबी जीवन बनाना चाहिए। धैर्य की डोर से धर्म आराधना करनी चाहिए, अपने जीवन से यही प्रेरणा दी यह उसका महत्वपूर्ण अवदान है। ३.७.३४ सुश्राविका सुलसा जी : राजगह नगर के रथिक नाग की धर्मपत्नी थी सुलसा। वे निग्रंथ धर्म की दृढ़ अनुयायी प्रभु महावीर की बारहव्रतधारिणी श्रमणोपासिका थी। पुत्र के अभाव से पीड़ित नाग को सुलसा ने पुनर्विवाह करने को कहा, किन्तु नाग ने दढ़तापूर्वक कहा-मुझे तुम्हारे ही पुत्र की आवश्यकता है, मैं दूसरा विवाह नहीं करना चाहता। सुलसा ने कहा-यह तो संयोग वियोग की बात है, जो व्यक्ति इनसे ऊपर उठता है, वह अपने लक्ष्य पर अवश्य पहुंच जाता है। सुलसा की इस प्रेरणा से नाग अपने अन्य कार्यों के साथ धार्मिक क्रियाओं में भी दढ़ता से संलग्न हो गया। सुलसा ने पूर्ण श्रद्धा, विश्वास, भक्तिभाव से देव प्रदत्त गोलियों का सेवन किया किंतु एक-एक न खाते हुए बत्तीस गोलियां एक साथ ले ली। परिणामस्वरूप सुलसा ने बत्तीस लक्षणों वाले बत्तीस पुत्रों को जन्म दिया। कालांतर में वे पुत्र सब विद्याओं में पारंगत हुए। उन बत्तीस पुत्रों को राजा श्रेणिक ने अपने अंगरक्षक के स्थान पर नियुक्त किया। एक बार राजा श्रेणिक वैशाली में अंगरक्षकों के साथ सुज्येष्ठा का अपहरण करने गये । सुरंग के गहन अंधकार में स्वामीभक्त अंगरक्षकों की मृत्यु हो गई। बत्तीस ही पुत्रों की एक साथ मृत्यु से सुलसा को बहुत आघात लगा। वह दृढ़ धार्मिक थी, पर अपने पुत्रों के अनुराग से विव्हल हो उठी। प्रधानमंत्री अभयकुमार उसे ढ़ाढ़स बंधाने के लिए आया, उन्होंने उसको बहुत सान्त्वना दी। सुलसा ने अपने विवेक को जागृत किया और धर्म ध्यान में लीन हो गई। एक बार चंपा नगरी में भगवान् का समवसरण लगा। राजगृह का अंबड़ श्रावक भी भगवान् की देशना सुनने व दर्शन करने के लिए आया, वह अपनी विद्या के आधार पर नाना रूप बदल सकता था। वह बेले बेले की तपस्या करता और श्रावक के बारह व्रतों का पालन करता था। देशना के अंत में उसने कहा-भंते! आपके उपदेश से मेरा जन्म सफल हो गया, आज मैं राजगह जा रहा हूँ। भगवान महावीर ने कहा-राजगृह में एक सुलसा श्राविका है, वह अपने श्राविका धर्म में बहुत दृढ़ है, ऐसे श्रावक-श्राविका विरले ही होते हैं। सलसा के इस अहोभाग्य पर अम्बड़ श्रावक ने सोचा, सलसा का ऐसा कौन सा विशेष गुण है, जिसको लेकर भगवान ने उसे धर्म में दृढ़ बताया। उसने परीक्षा लेने का निश्चय किया। अम्बड़ ने एक परिव्राजक (सन्यासी) के रूप में सुलसा के घर जाकर कहा-"आयुष्यमती! तुम मुझे भोजन दो, इससे तुझे धर्म होगा। सुलसा ने उत्तर दिया-मैं जानती हूँ, किसे देने में धर्म होता है, और किसे देने में केवल व्यवहार साधना।" अम्बड़ ने अपनी विद्या के बल पर कई प्रकार के विवित्र वेश धारण कर सुलसा को भुलावा देने की कोशिश की पर उस पर कोई प्रभाव नहीं हुआ। अंत में एक निग्रंथ के वेश में वह सुलसा के घर आया। सुलसा ने उसे देखा, तो नमस्कार किया और भक्तिपूर्वक सम्मान भी। अम्बड़ ने अपना असली रूप बनाया और भगवान् महावीर द्वारा की गई उसकी प्रशंसा की सारी घटना सुनाई। सम्यक्त्व में दृढ़ होने के कारण सुलसा ने तीर्थंकर नाम-गोत्र कर्म का उपार्जन किया। १०८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003610
Book TitleJain Shravikao ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages748
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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