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________________ जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास 21 का कथन है कि स्त्रियां गौओं की भांति नये-नये पुरूष ग्रहण करती हैं। स्त्रियां कामांध तथा अगणित दोषों का घर हैं । ५ १.१.६ स्मृतिकाल में भारतीय नारी:- वेदोपनिषदों के अनंतर समाज व्यवस्था के स्वरूप विवेचक ग्रंथों में स्मृतियों का विशेष महत्व है । मनुस्मृति का शास्त्रों में विशेष स्थान है। मनुस्मृति में हिंदु समाज की संरचना एवं संचालन का संविधान सुव्यवस्थित है। वर्ण व्यवस्था, परिवार व्यवस्था, समाज में नारी का स्थानादि, विभिन्न लोक व्यवहारगत विषयों का अधिकारिक निर्धारण एवं विवेचन इस स्मृति का मूल प्रतिपाद्य रहा है। सुदीर्घ परवर्तीकाल में तथा वर्तमान में जो संस्कार और संस्थाएं हिंदु समाज में परंपरागत रूप में विद्यमान हैं उनका स्त्रोत मनुस्मृति ही है। अतः निविर्वाद रूप में उनमें प्रस्तुत नारी स्वरूप को तत्कालीन नारी स्थिति माना जा सकता है। अ. पत्नी रूप में नारी के कर्तव्य :- मनु याज्ञवल्क्य, शंख, व्यास, आदि दार्शनिक ऋषियों ने पत्नी के कर्तव्यों का निर्धारण और विवेचन निम्न रूपों में किया है। पत्नी पति सेवा परायण, हँसमुख स्वभावी, गृहकार्यदक्ष, आदत से स्वच्छ मितव्ययी, पति के मनोरोगों की चिकित्सक, गुरूजनों के पश्चात् सोने वाली और उनके उठने से पूर्व निद्रा का त्याग करने वाली हो एवं निषिद्ध व्यक्तियों के संपर्क से दूर रहने वाली हो । पुरुषों का दायित्व था कि वे प्रत्येक अवस्था में संबंधित नारियों के मान-सम्मान-प्रतिष्ठा की रक्षा करें। पति का कर्तव्य था "धर्मे अर्थे च नाति चरामि' अर्थात् धर्म ओर अर्थ सम्बंधी कोई कार्य पत्नी के बिना नहीं करूंगा। स्मृतिकाल में कन्या का विवाह शिक्षा की अपूर्ण अवस्था में रजोदर्शन से पूर्व होता था। उसके शिक्षाक्रम को बढ़ाने का काम पति पर था। इस हेतु पति का गौरव क्रमशः उन्नयन प्राप्त करता रहा। इस क्रम ने तीव्र गति धारण की तथा पति पत्नी के लिए देवतावत् पूज्यनीय बन गया। पति के कोढ़ी, पतित अंगहीन, या रूग्ण होने पर भी पति को देवता मानकर "पति सेवा" का विधान किया गया। ब. पत्नी के अधिकार :- पति की समस्त संपदा पर नारी का अधिकार था। स्त्री धन जैसी संपदा पर मात्र पत्नी का एकाधिकारयुक्तस्वामित्व भी रहता था । व्यभिचारिणी स्त्रियों को दंडित किया जाता था । इस काल में स्त्रियों के लिए उपनयन संस्कार निषिद्ध था । फलतः वेदाध्ययन निषिद्ध था । अक्षत कौमार्य कन्या का विवाह होता था । पुत्र और पुत्री को समान माना जाता था । पुत्र के अभाव में पुत्री धन की अधिकारिणी होती थी। शौनिक कारक में आठ मंगलकारी वस्तुओं में कन्या दर्शन भी एक मंगल माना जाता था । म. नारी सम्मान :- मनुस्मृति का कथन है कि "यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता" अर्थात् जहां नारी का सम्मान होता है वहां प्रसन्नतापूर्वक देवता निवास करते हैं। जहां स्त्री दुःखी रहती है, वहां वह कुल शीघ्र ही सर्वनाश को प्राप्त हो जाता है। यदि पिता रजस्वला आयु प्राप्ति के तीन वर्ष बाद भी अपना कर्तव्य पूर्ण नहीं करे तो कन्या को स्वयं पति चयन करने का अधिकार होता था। अयोग्य वर निषिद्ध था। परिवार में स्त्रियां सबके भोजन करने के पश्चात् भोजन करती थी किंतु नववधू को सर्वप्रथम भोजन कराया जाता था। माता देवताओं से अधिक पूजित मानी जाती थी। दस उपाध्यायों से अधिक एक आचार्य का सौ आचार्यों से अधिक एक पिता का, और हजार पिताओं से अधिक एक माता का गौरव होता है। माता पिता में विवाद हो जाए पिता कुमार्गी हो जाये तो संतान माता की ओर से बोले तथा माता के पास ही रहे। क. स्मृतिकाल में नारी शिक्षा :- मनु तथा याज्ञवल्क्य की व्यवस्था ने स्त्रियों की शिक्षा को अत्यंत आघात पहुंचाया। इन्होंने विवाह के संस्कार को ही उपनयन का रूप मानकर, पति सेवा को ही गुरुकुल निवास बना दिया और यहीं से स्त्रियों की पराधीनता का प्रारम्भ हुआ । धर्मशास्त्रकारों ने स्त्रियों के विरुद्ध षडयंत्र सा रच डाला तथा वैदिक अध्ययन के अतिरिक्त अन्य विषयों में उन्हें शूद्रों के समकक्ष रखकर उनकी शिक्षा समाप्त कर दी । डॉ० अलकर ने नारी शिक्षा के ह्रास पर विचार व्यक्त करते हुए लिखा है कि 'संपन्न परिवारों में कम आयु में विवाह होने के कारण बालिकाओं को शिक्षा पूर्ण करने का बहुत कम अवसर उपलब्ध होता था । निर्धन परिवार की बालिकायें विवाह के समय आवश्यक मंत्रों का उच्चारण भी नहीं कर पाती थीं। गृहकार्यों में व्यस्तता के कारण अध्ययन का समय उपलब्ध नहीं होता था । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.003610
Book TitleJain Shravikao ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages748
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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