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________________ 22 वैदिक मंत्रोच्चारण की अल्प त्रुटि भी भयंकर समझी जाती थी। संभवतः इसीलिए त्रुटिपूर्ण वेदाध्ययन को प्रतिबंधित करना ही उचित समझा गया। वैदिक तथा साहित्यिक शिक्षा का ह्रास अवश्य हो रहा था, किन्तु गृहविज्ञान की शिक्षा में किसी प्रकार की कमी नहीं की जाती थी। पूर्व पीठिका वैदिक युग में युवक तथा युवतियों को अपने योग्य जीवन साथी चुनने की पूर्ण स्वतन्त्रता थी । ऋग्वेद काल में स्वयंवर होते थे। बाद में यह प्रथा क्षत्रियों में सर्वाधिक प्रचलित रही । अल्पायु में विवाह प्रारम्भ होते ही इस प्रथा का विलोप होने लगा। पुराणों ..में इस प्रथा का घोर विरोध किया गया। पौराणिक काल में स्त्रियों का स्थान महत्व कम हुआ । १.१.७ पौराणिक काल में भारतीय नारी का सामाजिक महत्व: भार्या को गृहधर्मिणी के रूप में स्वीकार किया गया जो वैदिक कालीन परम्परा एवं पौराणिक युग में भी दृष्टव्य है । विष्णुपुराण में पत्नी को सद्धर्मचारिणी की संज्ञा दी है, जिसके साथ गृहस्थ धर्म का पालन करने से महान् फल की प्राप्ति होती है। ब्रह्माण्डपुराण मातंग की पत्नी को भी सहधर्मिणी की उपाधि दी गई। याज्ञिक अनुष्ठानों में पत्नी की उपस्थिति अनिवार्य मानी जाती थी । पुराणों में पृथ्वी का उद्धार करने वाले वराह की क्रिया को "यज्ञ" का रूपक माना गया। वर्णनक्रम में निरूपित है कि उस समय उनकी पत्नी छाया उनके साथ विद्यमान थीं। ब्रह्माण्डपुराण में निरूपित है कि नप सागर ने सपत्नीक यज्ञीय स्नान संपन्न किया । उपर्युक्त उद्धरण से ज्ञात होता है कि समाज में जब तक याज्ञिक अनुष्ठान परंपरा विद्यमान थीं, पति के साथ पत्नियां भी उसमें सहयोग देती थीं। पत्नी का सर्वश्रेष्ठ गुण संयम माना जाता था । इंद्रियों पर संयम सर्वाधिक कठिन कार्य है और इसमें पत्नी सफलीभूत होती थी। ऋषि वशिष्ठ की पत्नी अरुंधती ने पति के साथ रहकर अपनी इंद्रियों को वश में कर स्वयं को संयमी स्त्री सिद्ध किया । इसके पीछे दो मुख्य धारणायें काम कर रही थीं। प्रथम, तत्कालीन सामाजिक नियम विश्रंखलित हो रहे थे और उसे व्यवस्थित करना आवश्यक था। पत्नी के संयम से पति को संयमित रहने की प्रेरणा मिली अतः पति भोग विलास में लिप्त न होकर सामाजिक कर्तव्यों की ओर अपना ध्यान आकष्ट करने लगे। दूसरे बाह्य आक्रमण तथा युद्धों के कारण देश का आर्थिक संतुलन भी डावाँडोल हो रहा था, अतः आर्थिक स्थिति को सुदढ़ बनाये रखने के लिए परिवार को सीमित करना भी आवश्यक हो गया था। इस युग में साहित्य और मूर्तिकला में कहीं भी एक या दो से अधिक बच्चों का संकेत नहीं मिलता। सीमित परिवार के नियोजन का श्रेय स्त्रियों की संयम शक्ति को ही दिया जाना चाहिये । नारी जीवन की सार्थकता मातृत्व में है, यह मानकर पुराणों तथा तंत्रों में स्त्री के मात रूप की आराधना महाशक्ति जगदम्बा और जगज्जननी आदि अनेक नामों से की है। भारतीय नरेशों द्वारा उत्कीर्ण करवाये गये अभिलेखों में भी माता को ही प्रधानता दी गई है। ये शासक अपनी दिवंगत माता के नाम पर दानादि दिया करते थे तथा उनके सम्मान में अभिलेख उत्कीर्ण करवाते थे। कभी कभी पुत्रियाँ भी अपनी माता की कीर्ति के लिए धार्मिक कृत्य करती थीं। लोणियवंशीय श्री कृष्णादेवी इसका प्रमाण है जिन्होंने अपने माता-पिता की कीर्ति के लिए धार्मिक कार्य किये थे। चेदिराज ने माता के अनुरोध पर अपने शत्रु के परामर्शदाताओं तथा शत्रु पत्नियों को कैद से मुक्त कर दिया था। हिन्दू विवाह संस्था का उद्देश्य पति-पत्नी के सम्बन्ध स्थापित करना ही नहीं वरन् उनमें प्रेम तथा सौहार्दपूर्ण व्यवहार उत्पन्न कर घर को स्वर्ग बनाना तथा समाज की उन्नति करना था । भवभूति ने मालती - माधव ग्रंथ में पति-पत्नी के आदर्श प्रेम का उदाहरण प्रस्तुत किया है। उत्तररामचरित की सीता रामचन्द्रजी के लिए गह लक्ष्मी थीं । आदर्श दाम्पत्य जीवन की कसौटी पति-पत्नी के अटूट सम्बन्ध थे। सुशिक्षित एवं कुलीन परिवारों में पत्नी को सम्मान एवं प्रतिष्ठा प्राप्त थीं। रानियों को महारानी जैसी उपाधियों से विभूषित किया जाता था । इस सम्बन्ध में अनेक अभिलेखीय साक्ष्य मिलते हैं । " पत्नी में प्रेम तथा दूसरों के हितों का ध्यान रखना आदि गुणों का होना स्वाभाविक था । नारायणपाल के बद्दल स्तंभ लेख में चर्चित इच्छना में दोनों गुण थे। गोपाल की पत्नी रम्भादेवी के गुणों की प्रशंसा प्रजा करती थीं। सल्लक्षणवर्मन के अन्तःपुर में मालव्यदेवी अपने विशेष गुणों के कारण महारानी के पद पर आसीन हो सकी थीं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003610
Book TitleJain Shravikao ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages748
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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