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फलस्वरूप प्रभु के शासन में जितने श्रमण , उनसे अधिक श्रमणियां थी । जितने श्रावक थे उनसे तीन गुना अधिक श्राविकाएं थी । उनके मन में स्त्रियों के लिए विशेष आदर भाव था और वास्तव में यही उनकी महावीरता थी ।
पूर्वपीठिका
आगमग्रंथों में नारी को पुत्री, पत्नी, भगिनी, माता, एवं तपस्विनी आदि रूपों में वर्णित किया गया है। जैन साहित्य में वर्णित जैन श्राविकाओं के जीवन वत्त को एक कालक्रम में श्रंखलाबद्ध करके उनके मूल्यांकन करने का प्रयास प्रस्तुत शोध ग्रंथ में किया गया है ।
जैन परम्परा में नारी के महत्व का विवरण प्रथम तीर्थंकर भ० ऋषभदेव के समय से ही मिलने लगता है। धर्म, कला एवं संस्कृति के इस प्रारम्भिक काल में नारी शक्ति के विकास में इनका अद्भुत योगदान रहा है। ब्राह्मी ने भ० ऋषभदेव से स्त्री की चौंसठ कलाओं का लिपि ज्ञान अर्जन कर मानव जाति में विसर्जित किया । सुन्दरी ने गणित विद्या का अर्जन कर मानव जाति में वितरित किया। चौंसठ कलाओं का अर्जन दोनों ने किया, और अन्त में धर्म कला में आगे बढ़कर दीक्षित हुई । भ० ऋषभदेव की माता मरुदेवी ने पुत्र स्नेह को त्यागकर केवलज्ञान प्राप्त किया, गृहस्थलिंग में सिद्ध बुद्ध मुक्त बनी। परवर्ती तीर्थंकरों के समय में भी नारी का योगदान सतत् रहा।
जैन साहित्य ग्रंथों में तीर्थंकरों की माताओं का वर्णन तो प्राप्त होता है, किन्तु तीर्थंकरों की पत्नियों के वर्णन को पूर्ण रूप से उपेक्षित किया गया है। केवल नामोल्लेख शेष रह गया है, उनके उज्जवल त्याग का वर्णन नगण्य है। उदाहरणार्थ : महावीर की सहधर्मिणी यशोदा का इतिहास तो अवश्य उपलब्ध है, क्योंकि यह काल दृष्टि से अत्यधिक निकटतम है। जहां महावीर के परिवार के समस्त सदस्यों का वर्णन उपलब्ध होता है, वहां इस महान त्यागमयी नारी के जीवन का बड़ा भाग अज्ञात ही है । वर्द्धमान महावीर भ्रातृ-स्नेह के वशीभूत होकर जब दो वर्ष गह में अनासक्त भाव से रहे तब यशोदा ने उनकी किस प्रकार सेवा की ? महावीर की प्रव्रज्या के समय यशोदा की क्या मनोदशा थी? पति के दीक्षित होने के पश्चात् उन्होंने अपना जीवन कैसे व किन मनोभावनाओं के बीच व्यतीत किया, इन सबका विस्तृत वर्णन किसी भी प्रामाणिक ग्रंथ में उपलब्ध नहीं हो पाया। ये सब प्रश्न पहेली बनकर उपस्थित होते है। यशोदा के मानसिक चिंतन एवं मनोभावों का चित्रण केवल कल्पना के विषय ही रह जाते हैं। इसी प्रकार रामायण में लक्ष्मण पत्नी उर्मिला एवं बौद्ध साहित्य में गौतम बुद्ध की पत्नी यशोधरा के जीवन की घटनाओं के दिग्दर्शन की भी उपेक्षा की गई है।
भारतीय लोक जीवन में नारी को सजग सचेत एवं संरक्षिका कहा गया है। कुलकरों को जन्म देने वाली माताएँ कुल की संरक्षिका थीं। तीर्थंकर, चक्रवर्ती, नारायण, प्रति नारायण आदि को जन्म देने वाली माताओं का अवदान अपने देश और समाज के लिए महत्वपूर्ण रहा है। इन के कारण ही समाज ऐसे नर रत्नों को प्राप्त कर सका। आगमों में नारी की बुद्धिमत्ता के कई उदाहरण भी मिलते हैं जिनमें महत्वपूर्ण उदाहरण है रोहिणी का जिसने धान्य को सुरक्षित रखने के साथ-साथ उसकी वृद्धि भी की थी। तीर्थंकरों की अधिष्ठायिका देवियां, चक्रेश्वरी, अम्बिका, पद्मावती, सिद्धायिका आदि जगत कल्याण करने वाली देवियां थीं । राजीमती अर्थात् राजुल का नाम किसी से छिपा हुआ नहीं है। जयंति श्राविका कमलावती रानी और कौशल्या, कुंती, सीता आदि कई ऐतिहासिक नारियों ने समाज और राष्ट्र को महत्वपूर्ण योगदान दिया है।
जैन धर्म में नारी को श्रमणी एवं श्राविका के रूप में प्रस्तुत किया गया है और सत्य उसके जीवन के आधार होते हैं। एक साध्वी के रूप में वह समस्त जगत के प्राणियों की रक्षिका बन जाती हैं, तो श्राविका के रूप में जीवों को अभयदान दात्री होती
है ।
अ. आध्यात्मिक क्षेत्र में नारी का योगदान :
ब्राह्मी, सुंदरी, राजीमती, चंदना आदि नारियों ने आध्यात्मिक जगत में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया है। इतिहास इस बात का साक्षी है कि नारी की आध्यात्मिक शक्ति ने संघ और समाज का बहुत कल्याण किया है।
१.११ महावीरकालीन नारियों का जैन धर्म को अवदान :
समस्त जैन इतिहास की प्रधान धुरी तथा सर्वाधिक स्पष्ट पथचिन्ह वर्धमान महावीर (५६६.५२७ ई. पू.) का व्यक्तित्व और
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