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जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
में अतिशयोक्तिपूर्ण हो । जिस प्रकार १०० वर्ष की आयु, तीस वर्ष गृहस्थाश्रम और ७० वर्ष तक संयम तथा २५० वर्ष तक उनका तीर्थ चला इसमें ऐसी कोई भी बात नहीं है जो असंभवता एवं ऐतिहासिक दृष्टि से संदेह उत्पन्न करती हो। इसलिए इतिहासकार उनको ऐतिहासिक पुरुष मानते हैं ।
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जैन साहित्य से ही नहीं, अपितु बौद्ध साहित्य से भी उनकी ऐतिहासिकता सिद्ध होती है। इसी ऐतिहासिकता के साथ यह भी सिद्ध हो जाता है कि भगवान् महावीर का परिनिर्वाण ई.पू. ५२७.५२८ माना गया है। निर्वाण से ३० वर्ष पूर्व ईसा पूर्व ५५७ में महावीर ने सर्वज्ञत्व प्राप्त कर तीर्थ का प्रवर्तन किया, भ० महावीर एवं भ० पार्श्वनाथ के तीर्थ में २५० वर्ष का अंतर है। इसका अर्थ है कि ई.पू. ८०७ में भगवान् पार्श्वनाथ ने इस धरा पर धर्म तीर्थ का प्रवर्तन किया ।
भगवान् पार्श्वनाथ के पूर्ववर्ती तीर्थंकर भ० अरिष्टनेमि और उत्तरवर्ती तीर्थंकर भ० महावीर स्वामी, दोनों ने ही अहिंसा के संबंध में क्रांतिकारी विचार प्रस्तुत किये हैं। युग की कुछ धार्मिक मान्यताओं में संशोधन परिवर्तन भी किया है। श्रीकृष्ण जिस घोर अंगीरस अध्यात्म एवं अहिंसा की शिक्षा प्राप्त करते हैं, वे तत्वज्ञ महात्मा भ० अरिष्टनेमि थे- ऐसा इतिहाकारों का मत है। भगवान् महावीर तो निःसन्देह ही अहिंसा के महान् उद्घोषक मान लिए गए हैं। इन दोनों विचारधाराओं का मध्य बिंदु भगवान् पार्श्व ही बनते हैं । वे अहिंसा के संबंध में प्रारम्भ से ही क्रांतिकारी विचार रखते हैं और गृहस्थ जीवन में भी कमठ तापस के प्रसंग पर धर्म क्रांति का सौम्य स्वर दृढ़ता के साथ मुखरित करते हैं। तीर्थंकरों के जीवन में इस प्रकार की धर्म क्रांति की बात गृहस्थ जीवन में सिर्फ भगवान् पार्श्वनाथ के द्वारा ही प्रस्तुत होती है। दीक्षा के बाद भी वे अनार्य देशों में भ्रमण करके अनेक हिंसक व्यक्तियों के मन में अहिंसा की श्रद्धा जागृत करने में सफल होते हैं।
इस प्रकार भगवान् पार्श्वनाथ का व्यक्तित्व भगवान् अरिष्टनेमि एवं भगवान् महावीर स्वामी के विचारों का मध्य केन्द्र सिद्ध होता है। धर्म क्रांति तथा अहिंसा की गंगा को महाभारत युग से लेकर भ० महावीर और गौतम बुद्ध के युग तक पहुंचा देने वाला भगीरथी व्यक्तित्व भी ।' भगवान् पार्श्व का भी चतुर्विध धर्मसंघ था, उनकी भी तीन लाख श्राविकाएं थी ।
यद्यपि आगमों में और कथा साहित्य में पार्श्व की परम्परा की साध्वियों के उल्लेख तो मिलते हैं किन्तु श्राविकाओं के उल्लेख नहीं ही हैं। ज्ञाताधर्मकथांग के द्वितीय श्रुत स्कन्ध में एवं चूर्णि साहित्य में पार्श्वपत्य साध्वियों के अनेक उल्लेख हैं। वहाँ यह भी उल्लेख है कि वे साध्वियाँ शिथिलाचारी होकर निमित्त शास्त्र व ज्योतिष के माध्यम से अपनी आजीविका चलाती थी ।
कल्पसूत्र में ऐसा उल्लेख है कि भगवान महावीर के माता पिता पार्वापत्य श्रावक थे। इससे महावीर की माताओं का भ० पार्श्वनाथ की परम्परा की श्राविका होना सिद्ध होता है। इसीप्रकार प्रभावती जी जिसे श्वेताम्बर परम्परा भ० पार्श्वनाथ की पत्नी के रूप में भी मानती है वह भी भ० पार्श्वनाथ की परम्परा की ही एक उपासिका थी । भ० पार्श्वनाथ की माता और भ० महावीर स्वामी की माता, का सबसे बड़ा अवदान यही है कि उन्होंने भ० पार्श्वनाथ और भ० महावीर जैसे नर रत्न समाज को प्रदान किये । ३. ३ तीर्थंकर महावीर कालीन परिस्थितियाँ :
३.३.१ धार्मिक परिस्थितियाँ: ई. पू. की छठीं शताब्दी का युग धार्मिक उथल-पुथल का युग था । इस युग में न केवल प्राचीन धर्म परंपराओं में क्रांतिकारी महापुरुषों का जन्म हुआ अपितु अनेक नये संप्रदायों का आविर्भाव भी हुआ। इस युग में भारत में ही नहीं अपितु संपूर्ण एशिया खण्ड में ही एक प्रकार की धार्मिक उथल पुथल हुई। चीन में लाओत्से और कन्फ्यूशियस ने धार्मिक चेतना की नई लहर पैदा की थी तो ग्रीस में पाइथागोरस, सुकरात और प्लेटों की नई विचारधारा ने पुरानी धार्मिक मान्यताओं को झकझोरा था। ईरान और परशिया में जरथुस्त भी अपनी विचारधारा को इसी युग में प्रसारित कर रहे थे। ई.पू. छठीं शताब्दी का भारत तो इस प्रकार की धार्मिक हलचलों का केन्द्र था । अनेक धार्मिक महापुरुष दार्शनिक और विचारक पुरानी मान्यताओं के परिवेश में अपनी नई स्थापनाओं को प्रस्तुत कर रहे थे। जिसे भी सत्य की एक किरण दिखाई दी बस वही अपने को सत्य का सम्पूर्ण दृष्टा और प्रवक्ता मानने का ढिंढोरा पीटने लगा। बौद्ध साहित्य के अनुसार उस समय त्रेसठ श्रमण संप्रदाय विद्यमान थे। जैन साहित्य में तीन सौ त्रेसठ मत मतान्तरों का उल्लेख मिलता है। संक्षेप में इन समस्त संप्रदायों को चार वर्गों में विभक्त किया गया है । यथा:- क्रियावाद, अक्रियावाद, विनयवाद और अज्ञानवाद । वैदिक परंपरा के धर्मनायकों का विस्तृत और प्रामाणिक वर्णन कम उपलब्ध होता है । अतः उपलब्ध श्रमण परंपरा के दार्शनिकों की चर्चा प्रस्तुत की है।
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