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________________ 158 ऐतिहासिक काल की जैन श्राविकाएँ 3.३.२ सामाजिक परिस्थितियाँ :- इस काल में ऋग्वैदिक काल की अपेक्षा हिन्दू धर्म अधिकाधिक जटिल होता चला गया। अंधविश्वासों और बाह्य कर्मकाण्डों का बोलबाला हो गया। जाति प्रथा ने अपना जटिल रूप धारण कर लिया। उच्च जाति के लोग (द्विज) निम्न जाति (क्षुद्र) के लोगों के साथ जानवरों से भी अधिक क्रूर व्यवहार करने लगा। शूद्रों को मन्दिरों में जाने, वैदिक साहित्य पढ़ने, यज्ञ करने, कुओं से पानी भरने की आज्ञा नहीं थी। समाज में ब्राह्मणों का प्रभुत्व था। वर्षों तक चलने वाले यज्ञों में तथा अनेक रीति रिवाजों में ब्राह्मणों की उपस्थिति आवश्यक होती थी। इन अवसरों पर काफी धन खर्च करना पड़ता था जो जन सामान्य की पहुँच से बाहर था। ब्राह्मण वर्ग भ्रष्टाचारी लालची तथा धन बटोरने में लगे रहते थे। सादगी के स्थान पर वे भोग विलास पूर्ण जीवन व्यतीत करने लग गए थे। उस समय लिखे गए सभी धार्मिक ग्रंथ जैसे वेद, उपनिषद्, ब्राह्मण ग्रंथ, रामायण, महाभारत आदि संस्कृत भाषा में रचित थे, जिसे साधारण लोग पढ़ने में असमर्थ थे। ब्राह्मणों ने इस स्थिति का लाभ उठाकर धर्मशास्त्रों की मनमानी व्याख्या करनी शुरु कर दी। लोग भूत-प्रेत, जादू-टोना आदि के अंधविश्वास में पड़ गये। उनका विचार था कि जादू-टोनों की सहायता से शत्रुओं पर विजय प्राप्त की जा सकती है, रोगों से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है और संतान की प्राप्ति की जा सकती है। इस प्रकार हिंदू धर्म की जटिलता, जाति-प्रथा, ब्राह्मणों के नैतिक पतन, कठिन भाषा का प्रचार तथा अंधविश्वास से घिरे लोगों के लिए सच्चे पथ प्रदर्शक की आवश्यकता थी। ३.३.३ राजनैतिक परिस्थितियाँ :- ई. पू. की छठी शताब्दी में उत्तर भारत में मगध राज्य सबसे शक्तिशाली राज्य था। बिम्बिसार और अजातशत्रु इस राज्य के दो महान शासक थे। ये दोनों शासक ब्राह्मणों के प्रभाव से मुक्त थे। वे बहुत सहनशील शासक थे। अतः ब्राह्मणों द्वारा किये जा रहे झूठे प्रचार और समाज में प्रचलित बुराईयों के विरुद्ध आवाज उठाने की आवश्यकता थी तथा सीधे सादे और व्यक्ति से जुड़ने जोड़ने वाले महापुरुष एवं धर्म की आवश्यकता थी। इन परिस्थितियों का लाभ उठाते हए जैन धर्म और बौद्ध धर्म ने मगध में अपना सर्वाधिक प्रचार किया। बिम्बिसार और अजातशत्रु ने इन दोनों धर्मों को अपना संरक्षण दिया। इसी कारण जैन ग्रंथों ने इन दोनों शासकों को जैनी और बौद्ध ग्रंथों ने इन्हें बौद्धी बतलाया है। मगध राज्य की देखा-देखी अन्य राज्यों ने भी की। जैन धर्म और बौद्ध धर्म को शासकों ने अपना संरक्षण देना शुरु कर दिया। परिणामस्वरूप ये दोनों धर्म दिन दुगुनी रात चौगुनी उन्नति करने लगे। इन शासकों के अतिरिक्त राजा उदयन, राजा चेटक, राजा चण्डप्रद्योत, चंद्रगुप्त मौर्य, अशोक महान का पौत्र संप्रति, कलिंग का शासक-खारवेल, चालुक्य शासक सिद्धराज एवं कुमारपाल, बंगाल के राजा पाल तथा दक्षिण के कदम्ब, गंग, राष्ट्र-कूट वंश के शासकों तथा उत्तर भारत के राजपूत वंश के अनेक शासकों ने जैन धर्म के प्रसार में प्रशंसनीय योगदान दिया। ३.४ तीर्थंकर भ० महावीर स्वामी की देन : ३.४.१ सामाजिक देन : तीर्थंकर भ० महावीर स्वामी ने युगीन परिस्थितियों में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने जातिप्रथा पर कड़ा प्रहार किया। परस्पर भ्रातभाव तथा समानता का प्रचार किया। उनकी शिक्षा थी, सभी जीवों में समान आत्मा का निवास है। अतः समस्त जीव जगत के साथ प्रेम भरा व्यवहार करना चाहिए । मनुष्य मात्र में धनी-निर्धन, जात-पात का भेदभाव नहीं होना चाहिए। भगवान महावीर ने अपने संघ में हरिकेश बल चाण्डाल को भी मुनि दीक्षा प्रदान की थी। इस प्रकार के उपदेशों के फलस्वरूप लोगों में परस्पर की कटुता समाप्त हुई तथा निम्न वर्ग को समाज में सम्मानजनक स्थान प्राप्त हुआ। उस समय स्त्री वर्ग को धार्मिक तथा सामाजिक अधिकारों से वंचित रखा जाता था, परन्तु अपने धर्मसंघ में श्रमणी दीक्षा तथा श्राविका दीक्षा प्रदान कर भगवान् ने स्त्रियों को पुरुषों के समकक्ष लाकर खड़ा किया और उसे पुरुषों के समान ही मुक्ति प्राप्ति का अधिकार है यह भी सिद्ध किया। परिणामस्वरूप स्त्रियों में आत्म सम्मान की एक नई भावना उत्पन्न हुई। ३.४.२ धार्मिक देन : भगवान् महावीर स्वामी ने बाह्य कर्मकाण्डों का विरोध किया। उन्होंने सत्कर्म और सदाचारमय जीवन जीने को श्रेष्ठ प्ररूपित किया। उनकी दृष्टि में धर्म नाम पर यज्ञ तथा बलि देना अनुपयुक्त था। उन्होंने विभिन्न टुकड़ों में बंटी हुई विचारधाराओं के समन्वयवाले अनेकांतवाद का प्रतिपादन स्यावाद के माध्यम से किया। वे ज्ञान की सभी अवस्थाओं से स्वयं गुजरे एवं अपने युग के तर्कप्रिय एकांतवादी लोगों के समक्ष धर्म को अधिक व्यवस्थित ढंग से प्रस्तुत किया। वे श्रोताओं के अंतस् तक पहुंचकर उनके अनुरुप धर्मदेशना करते रहे। उन्होंने अहिंसा, अनेकांतवाद, स्याद्वाद, आत्मवाद तथा रत्नत्रय आदि सिद्धांतों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003610
Book TitleJain Shravikao ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages748
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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