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________________ पूर्व पीठिका व्रती का जीवन दूसरों को पीड़ा प्रदायक नहीं होता, किसी को संताप नहीं देता है। वह धर्म, शान्ति, सहानुभूति, करूणा और संवेदना जैसी दिव्य भावनाओं का प्रतीक होता है। अतएव जीवन में व्रत-विधान की अत्यन्त आवश्यकता है। व्रती स्त्री-पुरुष कुटुम्ब, समाज, तथा देश में भी शान्ति का आदर्श उपस्थित कर सकते हैं और स्वयं भी अपूर्व शान्ति के उपभोक्ता बनते हैं। १.५.८व्रत का स्वरूप और भेदः हिंसा, असत्य, चोरी अब्रह्म और परिग्रह, से विरत होना ही व्रत है। विरति भी दो प्रकार की है-देशतः या अंशतः और सर्वतः । अविरति आत्मा का अत्याग रूप परिणाम है, इसमें आशा, इच्छा, वांछा, कामना आदि का सदभाव रहता है। इन सभी का बुद्धिपूर्वक सोच-समझकर त्याग करना, प्रतिज्ञाबद्ध होना है। व्रत ग्रहण करना अटल निश्चय का प्रतीक है। साधक अपनी योग्यता और क्षमतानुसार व्रतों को ग्रहण करता है। व्रतों का मूल उद्देश्य कर्मों की निर्जरा है। विरति दो प्रकार की है, सर्वतः विरति होना महाव्रत है और अंशतः विरति होना अणुव्रत । अणुव्रत अथवा अंशतः विरति में आत्मा की संसार सम्बन्धों व सांसारिक सुख भोग सम्बन्धों अनादिकालीन मूर्छा टूटती तो है, पर पूरी तरह नहीं टूटती। इसमें सांसारिकता के प्रति राग भाव का अंश काफी मात्रा में अवशेष रह जाता है। यदि मूर्छा न टूटे तो उसके त्याग रूप परिणाम होंगे ही नहीं। अतः यह तो स्पष्ट है कि उसका रागभाव कुछ कम हुआ। जितने अंश में राग कम होता है, उतनी ही उसकी विरति होती है। वह व्रत ग्रहण कर लेता है, यही अणुव्रत कहलाते हैं। अणुव्रती श्रावक या श्राविका सामान्यतया तीन योग और दो करण (अनुमोदन को खुला रखकर) व्रत ग्रहण करते हैं। जैन ग्रंथों में अणुव्रती के व्रत ग्रहण करने के ४६ विकल्प या भंग हैं। १.५.६ जैन आगम ग्रंथों में श्रावकाचार एवं श्राविकाचारः ज्ञातव्य है कि जैनागमों में श्रमणाचार के साथ-साथ श्रमणी के आचार का उल्लेख हआ है. जो दोनों के स आचार-नियम है। श्रमणाचार में श्रमणी के आचार-नियम भी समाहित किये गये हैं। यद्यपि जहां श्रमणी के आचार सम्बन्धी विशेष नियमों का उल्लेख आवश्यक लगा वहां, उतना निर्देश किया है इसी प्रकार श्रावकों एवं श्राविकाओं के जो आचार नियम सामान्य थे, उनमें श्राविकाओं के लिए अलग से उल्लेख नहीं है, फिर भी जहां श्राविकाओं के लिये जो विशेष नियम आवश्यक थे उनका उल्लेख हुआ है। जैन आगमग्रंथों में श्रावकाचार एवं श्राविकाचार का प्रारम्भ सूत्रकृतांगसूत्र से होता है। ३५ जहां श्रमणोपासक और श्रमणोपासिका नामों का उल्लेख मिलता है। इसके बाद स्थानांगसूत्र में श्रावक के पालन करने योग्य पांच अणुव्रतों और तीन मनोरथों का वर्णन किया गया है।३६ समवायांगसूत्र उपासकदशांगसूत्र एवं दशाश्रुतस्कन्धसूत्र में श्रावक के आध्यात्मिक विकास की ग्यारह प्रतिमाओं का उल्लेख है।३७ उपासकदशांग जो कि जैन आगम साहित्य में श्रावकाचार एवं श्राविकाचार का प्रतिपादन करने वाला एक मात्र प्रतिनिधि ग्रंथ है उसमें श्रावकों एवं श्राविकाओं की जीवनचर्या, बारह व्रत, नियम, प्रतिमाओं आदि का विस्तत वर्णन किया गया है।३८ श्राविका की व्रतव्यवस्था तीन प्रकार की है-पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत, एवं चार शिक्षा व्रत। सागार धर्मामत में कहा है-जो मर्यादायें सार्वभौम है। प्राणिमात्र की हितैषी है। और जिनसे 'स्व' 'पर' का कल्याण होता है उन्हें 'नियम' या'व्रत' कहा जाता है।४० १.५.१० द्वादश श्रावक . श्राविका व्रत जिस प्रकार सतत् गतिशील प्रवाहित होने वाली नदी के प्रवाह को नियंत्रित करने के लिए दो तटों की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार जीवन को नियंत्रित बनाये रखने के लिए व्रतों की आवश्यकता होती है। श्राविका के द्वादश व्रतों में पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतों की गणना की गई है।४१ (अ.) बारह व्रतों के नाम ___१. अहिंसा अणुव्रत २. सत्य अणुव्रत ३. अस्तेय अणुव्रत ४. स्वपति संतोष अणुव्रत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003610
Book TitleJain Shravikao ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages748
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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