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________________ जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास 27 श्राविका शब्द में तीसरा अक्षर "का" है। इसके भी दो अर्थ होते हैं। प्रथम अर्थ है, जो पाप को काटता है। श्राविका किसी भी पाप कार्य में प्रवृत्त नहीं होती। परिस्थिति विशेष के कारण कदाचित् पाप कार्य में फंस जाती है तो विवेकबुद्धि से अपने आपको पाप कार्य से बचा भी लेती है। वह पूर्वकृत पापकृत्यों को काटने के लिए दान, शील, तप और भाव की आराधना करती है। "क" का दूसरा अर्थ है - अपनी आवश्यकताओं को कम करना । उसकी प्रत्येक प्रवृत्ति में संयम और संवर विद्यमान रहता है। 'क' शब्द क्रियाशीलता का भी वाचक है। वह धर्माराधना में सदैव क्रियाशील या सक्रिय रहती है। १.५.३ व्रत ग्रहण करने से : श्राविका ( व्रती): जिस प्रकार डॉक्टर के घर जन्म लेने से कोई डॉक्टर नहीं बनता, उसके लिए चिकित्सा विज्ञान की परीक्षा समुत्तीर्ण करनी होती है। उसी प्रकार किसी श्रावक-श्राविका के घर में जन्म लेने मात्र से ही कोई श्रावक या श्राविका नहीं बन जाता । अपितु व्रत ग्रहण करने वाली ही श्राविका कहलाती है। यह एक ऐसा गुण है जो जन्मजात प्राप्त नहीं होता, उसे अर्जित करना पड़ता है। १.५. ४ श्रमणोपासिका श्राविका का अन्य नाम: श्राविका के लिए दूसरा शब्द श्रमणोपासिका भी है अर्थात् श्रमणों की उपासना करनेवाली । श्रमण सद्गुणों के आकर होते हैं, अतः श्रावक श्राविका उनके सद्गुणों को ग्रहण कर अपने जीवन को भी सद्गुणों से परिपूर्ण बनाते हैं। श्रावक या श्राविका संसार में रहते हैं किन्तु उनका मन सांसारिक भौतिक पदार्थों में लुब्ध नहीं होता । उपासना तभी पूर्ण होती है जब उपास्य और उपासक हो । यदि उपास्य सामने विद्यमान नहीं है तो उपासक उपासना किस प्रकार कर सकेगा? काल चक्र में अरिहंत परमात्मा सदैव नहीं होते हैं। वे किसी विशिष्ट काल में ही विद्यमान होते हैं परन्तु श्रमण प्रायः सदैव विद्यमान रहते हैं। श्रमण के अभाव में श्रमणोपासक और श्रमणोपासक के बिना श्रमण नहीं रह सकता । यो एक दृष्टि से देखा जाये तो अरिहंत परमात्मा भी श्रमण ही हैं। अरिहंत वीतरागी श्रमण होते हैं तो सामान्य श्रमण छद्मस्थ श्रमण होते हैं। फिर भी सामान्य छद्मस्थ श्रमण की साधना भी श्रमणोपासक की साधना से उच्च कोटि की होती है। श्रमण का साक्षात् उपासक होने से वह श्रमणोपासक कहलाता है। सम्यक्त्व स्वीकार करते समय व्यवहारिक की दृष्टि से श्रमण ही उसका गुरु बनता है । ३० श्रमण की उपासना करने वाले पुरुष श्रमणोपासक और स्त्रियां श्रमणोपासिका कहलाती हैं। १.५.५ श्रमणोपासिका के अणुव्रती आदि अन्य नाम ३१: श्राविका पूर्ण रूप से व्रतों की आराधना नहीं करती है। अतः व्रताव्रती, विरताविरत, देशविरत, देशसंयती और संयमासंयमी भी कहलाती है । 'आगार' अर्थात् घर में रहने के कारण वह सागारी भी कहलाती है। आगार का एक अर्थ छूट या सुविधा भी है इस कारण भी वह सागारी कही जाती है। गृहस्थ धर्म का पालन करने से वह गृहस्थधर्मी के नाम से भी विश्रुत है। उपासना करने के कारण उपासिका भी कहलाती है, श्रद्धा की प्रमुखता होने से वह श्राद्ध भी कहलाती है । १.५.६ रत्न-पिटारा: दिगंबर परंपरा के आचार्य समंतभद्र ने श्रावक-श्राविका धर्म को रत्नकरण्डक अर्थात् रत्नों का पिटारा कहा है । सूत्रकृतांगसूत्र में स्पष्ट उल्लेख है कि जिन्होंनें हिंसा की वृत्ति कुछ अंशों में त्याग दी है आगे भी त्याग करने की निर्मल भावना है और इस हेतु प्रयास भी करते हैं, वे गृहस्थ श्रावक-श्राविकाएं भी आर्य धर्मी हैं। उनका मार्ग भी मोक्ष का मार्ग है। श्रमण के समान श्रावक भी आर्य धर्म की भूमिका पर प्रतिष्ठित है। इसके विपरीत जो मिथ्यात्वी हैं, हिंसा आदि में जो रत हैं, वे अनार्य हैं । ३२ उपरोक्त पंक्तियों में श्रावक की जो विशिष्ट भूमिका है, उसके पर्यायवाची शब्दों के पीछे जो रहा हुआ रहस्य है, वह स्पष्ट हैं। श्रावक की भूमिका कितनी महान् है, यह भी स्पष्ट है। व्रती श्रावक किस रूप से व्रतों को स्वीकार करता है, उन व्रतों का स्वरूप क्या है । व्रत की जीवन में क्या आवश्यकता है। इन बातों पर आगे प्रकाश डाला जाएगा। १.५.७ व्रत स्वीकरण क्यों आवश्यक?: श्रावक और श्राविकाओं को व्रत ग्रहण करना आवश्यक माना गया है। व्रत अंगीकार करने से जीवन नियंत्रित हो जाता है। व्रत के अभाव में जीवन का कोई समुद्देश्य नहीं रहता । व्रत अंगीकार करने पर एक निश्चित लक्ष्य बन जाता है। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003610
Book TitleJain Shravikao ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages748
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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