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पूर्व पीठिका
मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका रूप चतुर्विध-संघ चारों गति (नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव) का नाशक है। अतः नवप्रसूता गाय जैसे अपने बछड़े पर वात्सल्य भाव रखती है, उसी प्रकार प्रयत्नपूर्वक परस्पर वात्सल्य भाव रखना चाहिए क्योंकि संघ भयभीत जनों को आश्रय देता है। वह निश्छल व्यवहार के कारण माता-पिता तुल्य तथा सर्व प्राणियों के लिए शरणभूत होता है। अतः संघ से विमुख नहीं होना चाहिए। ___नंदीसूत्र स्थविरावली में संघ को कमल की उपमा से उपमित किया है। संघ कर्मरज रूपी कीचड़ से सदा अलिप्त रहता है। श्रुतरत्न (आगम या ज्ञान) उसकी दीर्घनाल है, पांच महाव्रत उसकी स्थिर कर्णिका हैं तथा उत्तरगुण उसकी मध्यवर्ती केशर/पराग है। संघ श्रावकगण रूपी भ्रमरों से सदा घिरा रहता है, प्रमण-श्रमणी रूपी सहस्रपत्तों से युक्त होता है, तथा जिनेश्वर देव रूपी सूर्य के तेज से सदा विकसित होना है।२५ १.५ म०. महावीर का श्रमणी-संघ एवं श्राविका संघ:
जैन धर्म में श्रावक-श्राविका और श्रमण-श्रमणी दोनों की साधना का विस्तार से निरुपण है। योग्यता के अनुसार साधकों के दो विभाग किये गये है। सर्व विरति एवं देश--विरति । श्रमण-श्रमणियों की साधना उत्कृष्ट साधना होती है। अहिंसा आदि व्रतों का पूर्ण से पालन करने से इनकी साधना सर्वविरति साधना कहलाती है। साधु साध्वियां सांसारिक प्रपंचों से अलग रहकर तथा आरम्भ परिग्रह से मुक्त होकर साधना करते हैं।
श्रावक-श्राविकाओं की साधना उतनी उत्कृष्ट एवं कठोर नहीं होती। श्रावक-श्राविकायें गृहस्थाश्रम में रहकर अहिंसा आदि व्रतों की आंशिक साधना करते हैं। अतः ये देशविरत कहलाते हैं। यही कारण है कि श्रावक-श्राविकाओं के अन्य नाम "अणुव्रती", "देशव्रती", "देशविरत", "देशसंयमी" और "देशसंयती" "सागारी" आदि भी मिलते हैं।
१.५.१"श्राविका" शब्द की परिभाषाः
जैन साहित्य में श्राविका शब्द के दो अर्थ प्राप्त होते हैं। प्रथम "श्र" धातु का अर्थ है सुनना। जो श्रमणों से श्रद्धापूर्वक निग्रंथ प्रवचन को श्रवण करती है और तदनुसार यथाशक्ति उस पर आचरण करने का प्रयास करती है श्राविका है। प्रायः श्राविका शब्द का यही अर्थ ग्रहण किया जाता है।
श्राविका शब्द का दूसरा अर्थ "श्रा-पाके" धातु के आधार से किया जाता है। प्रस्तुत धातु से संस्कृत रूप श्राविका बनता है, जिसका अर्थ है जो भोजन पकाती है। श्रमणी भिक्षा से अपना जीवन निर्वाह करती हैं किन्तु श्राविका एवं गृहस्थाश्रमी होने से भोजन आदि पकाती हैं।२७
१.५.२ "श्राविका" अभिप्राय एवं अन्य नाम :
एक आचार्य ने "श्राविका" शब्द के तीनों अक्षरों पर गहराई से चिन्तन करते हुए लिखा है कि ये तीनों अक्षर श्राविका के पथक्-पथक् कर्तव्य का बोध कराते हैं। ९ प्रथम "श्र" अक्षर से यह अर्थ द्योतित है-जो जिन प्रवचन पर दृढ़ श्रद्धा रखती है। "श्रा" का अर्थ यह भी है कि जो श्रद्धापूर्वक जिनवाणी का श्रवण करती है। श्राविका मनोरंजन की दृष्टि से या दोषदृष्टि से उत्प्रेरित होकर शास्त्र श्रवण नहीं करती, अपितु श्रद्धा से करती है। विवेकपूर्वक जिज्ञासा बुद्धि से तर्क भी करती है, उन सभी के पीछे श्रद्धा प्रमुख रूप से रही हुई होती है।
श्राविका शब्द में दूसरा शब्द "वि" है। "वि" से यह अर्थ ध्वनित होता है कि श्राविका सुपात्र, अनुकंपापात्र, मध्यमपात्र सभी को विवेक पूर्वक या विचारपूर्वक दान देती है। किसी भी पुण्यकार्य या धर्मकार्य का पावन प्रसंग उपस्थित होने पर वह इधर-उधर बगलें नहीं झांकती। वह स्वयं कष्ट सहकर भी दूसरों का कष्ट दूर करने में संकोच नहीं करती। इसी प्रकार श्राविका के शब्द में आये हुए "व" का अर्थ सत्कार्य का वपन, 'व' अक्षर का अन्य अर्थ "वरण" भी है। श्राविका हठाग्रही नहीं होती है। जो बात, धर्म, समाज व आत्मा के हित के लिए है, उसका वह वरण करती है अर्थात उसे स्वीकार करती है। "व" का तीसरा अर्थ "विवेक" भी है। श्राविका की सभी क्रियायें चाहे वे लौकिक हों या धार्मिक विवेकर्पूण होती है। वह विवेक की तुला पर तोलकर ही कोई आचरण करती है। उसका कोई भी कार्य अविवेकपर्ण नहीं होता।
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