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________________ जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास आचार्य, उपाध्याय, साधु ये पांच परमेष्ठि माने गये हैं। आत्म-पुरुषार्थ से ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अंतराय इन चार घाति कर्मों का क्षय करने पर अरिहंत पद प्राप्त होता है।१६ जैन धर्म में प्रत्येक कालचक्र में चौबीस तीर्थंकरों के होने की मान्यता है। तीर्थंकर भगवान धर्म तीर्थ की स्थापना करते हैं। तीर्थंकर किसी नये धर्म के संस्थापक नहीं होते क्योंकि धर्म तो अनादि अनिधन है सदा शाश्वत है। वे तो धर्म-तीर्थ (धर्मसंघ) की स्थापना करते हैं। वे धर्म तीर्थ के उपदेष्टा है। धर्म संस्थापक नहीं। धर्म साधना से तीर्थंकर बनते हैं, तीर्थंकर से धर्म नहीं बनता। धर्म आत्मा का स्वभाव है, वह स्वभाव किसी के द्वारा बनाया नहीं जाता, केवल बताया जाता है, अतः तीर्थंकर धर्म उपदेष्टा है। धर्म के संस्थापक नहीं। वस्तुतः तीर्थंकर पद की प्राप्ति उत्कृष्ट पुण्य प्रकृति का परिणाम है। तीर्थंकरों की माता उनके जन्म से पूर्व १४ या १६ स्वप्न देखती हैं। जन्म से ही उनमें कुछ विशेष लक्षण होते हैं। सेवा और लोककल्याण की उत्कृष्ट वृत्ति होने पर तीर्थंकर नाम कर्म की पुण्य प्रकृति का बंध होता है १९ अर्थात् तीर्थंकर पद की प्राप्ति होती है। काल चक्र के दो विभाग हैं, यथा : १. उत्सर्पिणीकाल २. अवसर्पिणीकाल प्रत्येक काल चक्र में चौबीस-चौबीस तीर्थंकर होते हैं। तीर्थंकर जन्म से ही तीन ज्ञान से युक्त होते हैं,-मति ज्ञान, श्रुत ज्ञान एवं अवधिज्ञान। योग्य समय आने पर स्वतः दीक्षित होकर घोर तपश्चर्या करते हैं, कष्टों को सहन करते हैं; कर्मों का क्षय करके अहंत पद अर्थात् केवल ज्ञान को प्राप्त करते हैं। नन्दी सूत्र में वर्तमान काल के २४ तीर्थंकरों के नाम इस प्रकार हैं२० १. श्री ऋषभदेव जी २. श्री अजितनाथ जी ३. श्री संभवनाथ जी ४. श्री अभिनंदन नाथ जी ५. श्री सुमतिनाथ जी ६. श्री पद्मप्रभु जी ७. श्री सुपार्श्वनाथ जी ८. श्री सुविधिनाथ जी १०. श्री शीतलनाथ जी ११. श्री श्रेयांसनाथ जी १२. श्री वासुपूज्य जी १३. श्री विमलनाथ जी १४. श्री अनंतनाथ जी १५. श्री धर्मनाथ जी १६. श्री शांतिनाथ जी १७. श्री कुंथुनाथ जी १८ श्री अरनाथ जी १६. श्री मल्लिनाथ जी २०. श्री मुनिसुव्रत जी २१. श्री नमिनाथ जी २२. श्री अरिष्टनेमि जी २३. श्री पार्श्वनाथ जी २४. श्री महावीर स्वामी जी। १.४ जैन धर्म का स्वरूपः ज्ञान, दर्शन, चारित्र द्वारा कर्मों का नाश करने वाले गुण समूह को संघ कहते हैं ।२१ सम्यगदर्शन् सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्-चारित्र की भावनाओं से भावित चार प्रकार के संघ को अर्थात् साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविकाओं के समूह को संघ कहते हैं । भावपाहुड़ टीका में कहा गया है कि चातुर्वर्ण श्रमण संघ में धर्म के अनुकूल चलने वाले साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका आदि चातुर्वर्ण संघ का समावेश होता है।२३ १.४.१ संघ का महत्वः-२४ संघ स्वयं में एकता, व्यवस्था, संगठन एवं शक्ति का प्रतीक है। एकाकी जीवन जीने से अनाचार की ओर प्रवृत्ति होने की आशंका बनी रहती है। आत्मकल्याण, त्याग और संयम के इच्छुक साधकों के लिए संघ में रहना अनिवार्य है जिससे धर्म का निर्विघ्न पालन संभव होता है। इसी दृष्टि कोण को ध्यान में रखते हुए श्रमणों के लिए ससंघ विहार करने का विधान है। बृहत्कल्पभाष्य में संघस्थित श्रमण को ज्ञान का अधिकारी बताया है, वही दर्शन और चारित्र में विशेष रूप से स्थिर होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org|
SR No.003610
Book TitleJain Shravikao ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages748
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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