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ऐतिहासिक काल की जैन श्राविकाएँ
३.७.१६ श्रीमती नंदा जी : कोशला नगरी के हारीत गोत्रीय ब्राह्मण वसु की पत्नी थी। इनके एक पुत्र था जिनका नाम "अचलभ्राता" था ८ ये भगवान महावीर के गणधर बने थे। जिनशासन प्रभावक पुत्र को मां नंदा ने पैदा करने का सौभाग्य प्राप्त किया।
३.७.२० श्रीमती वरूणा जी : तुंगिका नगरी के कौडिण्यगोत्रीय, ब्राह्मण दत्त की पत्नी थी। इनके पुत्र का नाम “मेतार्य" था। भगवान् महावीर के गणधर बनने योग्य सुयोग्य पुत्र को मां वरूणा ने पैदा किया। . ३.७.२१ श्रीमती अतिभद्रा जी : राजगह के कौडिण्य गोत्रीय ब्राह्मण "बल" की पत्नी थी। इनके पुत्र का नाम "प्रभास" था।५ माता अतिभद्रा ने संस्कारवान् गणधर जैसे सुयोग्य पुत्र को जन्म दिया था।
३.७.२२ श्रीमती यशोदा जी : यशोदा कलिंग नरेश राजा जितशत्रु (कल्पसूत्र में वर्णित) और रानी यशोदया की पुत्री थी। अन्य मान्यता के अनुसार वसन्तपुर के महासामंत समरवीर राजा की सुपुत्री थी तथा वर्द्धमान महावीर की सहधर्मणी थी। अत्यंत सुंदर व गुणवान् पुत्रवधु को पाकर माता त्रिशला अति प्रसन्न थी। मानव श्रेष्ठ वर्धमान की सहधर्मिणी होने से यशोदा अपने जीवन को धन्य मानती थी। पति की त्यागमयी मनोकांक्षाओं को समझकर पतिपरायणा यशोदा ने अपनी मनोवत्तियों को उनके अनुरुप मोड़ लिया था। कालान्तर में उन्हें एक कन्या की माता बनने का सौभाग्य प्राप्त हआ, जिसका नाम प्रियदर्शना रखा गया था।६२ विवाह उपरान्त भी कुमार वर्द्धमान का मन भौतिकता की चकाचौंध में लिप्त न हो पाया और वे अपनी सहधर्मिणी यश की असारता के बारे में समझाने लगे। वे राज वैभव से दूर रहते, धरती पर सोते तथा सादा भोजन करते । यशोदा भी पति के विराग भाव को समझते हुए त्यागवृत्ति से रहती। उन्हें किसी प्रकार कष्ट न हो, इसकी सावधानी रखती । संसार की क्षणभंगुरता के उपदेशों को अपने पति से आदरपूर्वक सुनती तथा आचरण में लाने का प्रयत्न करती। यशोदा अपने पति के सुख में अपना सुख मानकर संतोष करती थी। वह कहती "नाथ! आपका सुख जगत के सुख में है, मेरा सुख आपके सुख में है। दीक्षा के समय विदा होते हुए वर्द्धमान स्वामी से यशोदा ने कहा-"आर्यपुत्र! शरद ऋतु में जब क्षत्रिय प्रवास व संग्राम के लिए जाते हैं, तब क्षत्राणियां, अपने शूरवीर पति को कुंकुम व केशर से तिलक लगा कर उन्हें विदाई देती हैं। आप तो संसार जीतने के लिए प्रयाण कर रहे हैं, अतः आपका मार्ग सरल हो, आप विजयी हों यही मंगल भावना है। इस महान नारी ने स्वयं के सुखों की आहुति देकर अपने पति महावीर के मार्ग को आलोकित किया। यह नारी के मौन त्याग का अनूठा व दुर्लभ उदाहरण है।
३.७.२३ महासती चंदनबाला जी : चंदनबाला का बचपन का नाम वसुमती था। वह चंपा नगरी के महाराजा दधिवाहन और महारानी धारिणी देवी की पुत्री थी। रानी धारिणी शीलपरायणा संस्कारवान् सन्नारी थी। युद्ध में जीतने पर शतानिक के एक सैनिक की दुर्भावना के कारण शील रक्षण के लिए महारानी धारिणी ने प्राणोत्सर्ग कर दिये। वसुमती को पुत्री मानकर सैनिक घर ले गया। कौशाम्बी पहुंचकर उसने उसे बेच दिया। श्रेष्ठी धनावह ने उसे खरीदा और अभिजातकुलीन कन्या समझकर उसे अपनी पत्नी मूला को सौंप दिया। पति-पत्नी ने उसका पत्रीवत पालन किया। वसमती का स्वभाव चंदन के समान शीतल और आनंदकारी था, श्रेष्ठी परिवार ने उसका नाम चंदना रखा। चंदना बड़ी मेधावी और प्रतिभासंपन्न कन्या थी। ___ चंदना जब तरूणावस्था में आई तब उसके निखरते हुए रूप सौंदर्य को देखकर मूला के मन में यह भाव आने लगा कि कहीं धनावह सेठ इससे आकर्षित होकर विवाह न कर ले। एक बार जब धनावह सेठ के पैर धुलाते हुए चंदना के बाल नीचे बिखर गए तब सेठ ने संतति वात्सल्य से उन्हें उसके जूड़े में लगा दिया। मूला की आशंका यह देखकर दृढ़ हो गई। चंदना को उसने सदैव के लिए मार्ग से हटाना उचित समझा।
सेठ कहीं बाहर गये थे। तब मला ने चंदना को खब पीटा और उसके सारे बाल कटवा दिये। बाद में हाथ-पैर में हथकड़ी-बेड़ी डालकर उसे भोयरे में डाल दिया। तीन दिन तक वह भूखी प्यासी वहीं पड़ी हुई अपने कर्मों की गति पर चिंतन करती रही। तीन दिन बाद धनावह सेठ आये. सप में उडद के बाकले थे. वे चंदना को खाने के लिए प्रदान कर सेठ लहार के पास दौड़े गए। भ० महावीर की साधना का बारहवां वर्ष चल रहा था। घोर तपस्वी भ० महावीर अपने कठोर तेरह अभिग्रह धारण करके आहार को निकले व चंदना के द्वार पर आये। चन्दना हर्षित हो उठी। उसके पास सूप में मात्र उड़द के बाकले थे,
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