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________________ 124 पौराणिक/प्रागैतिहासिक काल की जैन श्राविकाएँ उस पर डोरी चढ़ा दी। राम सीता का विवाह सानंद संपन्न हुआ। राम के साथ वनवास गमन के काल में किसी समय सीता के सौंदर्य को देखकर रावण काम विव्हल हो उठा। उसने विद्याबल से छल पूर्वक सीता का अपहरण कर लिया। लंका के बाहर नंदनवन में शिंशपा वक्ष के नीचे अन्न जल का त्याग कर सीता धर्म ध्यान में लीन हो गई । २०६ पवन पुत्र हनुमान के द्वारा श्री राम व लक्ष्मण की कुशलता का समाचार पाने के पश्चात् सीता ने बाईस दिनों के तप का पारणा किया।०७ मंदोदरी द्वारा रावण के लिए सीता को मनाये जाने पर सीता ने मंदोदरी को ललकारा तथा उसकी घोर भर्त्सना की। श्री राम ने लंका विजय के पश्चात् लोगों की शंका को सुनकर सीता को वन में अकेला छोड़ दिया। लेकिन सीता ने धैर्य नहीं छोड़ा। उसने कहा जिस प्रकार राम ने मेरा परित्याग किया है इसी प्रकार लोगों के कहने पर वे धर्म का परित्याग न कर बैठें। पुण्डरीक नगर के राजा वज्रजंघ ने सीता को बहन बनाकर अपने महल में रखा । वहीं पर सीता ने लवण और अंकुश दो बेटों को जन्म दिया ।२०८ अंत में राम ने सीता से क्षमा माँगी, महल में बुलाया किंतु सीता ने स्वयं को पवित्र सिद्ध करने के लिए अग्नि परीक्षा देनी चाही। राम ने लोकापवाद की निवृत्ति के लिए इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। सीता के सतीत्व के प्रभाव से अग्नि शांत हो गई तथा लोगों ने उसकी जय जयकार की। सीता ने राम से अनुमति लेकर संसार से विरक्त होकर भागवती दीक्षा ग्रहण की ।२०६९ २.२३.३६ कनकमाला :- कनकमाला राजा पृथु की कन्या थी तथा रामपुत्र लवण की पत्नी थी। २१० २.२३.४० तरंगमाला :- तरंगमाला राजा पृथु की कन्या थी तथा रामपुत्र अंकुश की पत्नी थी। २११ २.२३.४१ कैकेयी :- कैकेयी कौतुक मंगल नगर के राजा शुभमति एवं रानी पृथुश्री की कुक्षी से जन्मी थी। वह रूपवती, गुणवती, सरलमना एवं पराक्रमी थी। उसने स्वयंवर में दशरथ का वरण किया, जिससे क्रुद्ध होकर राजा हेमप्रभु और राजा हरिवाहन ने दशरथ के विरूद्ध युद्ध छेड़ दिया। कैकेयी ने राजा दशरथ की सारथी बनकर दशरथ की विजय श्री में अविस्मरणीय सहयोग प्रदान किया। जिससे प्रसन्न होकर कैकेयी को दो वचन (वर) दशरथ ने प्रदान किये। जिसे कैकेयी ने समय आने पर पुत्र भरत के लिए राजा दशरथ से मांगे थे। कैकेयी ने वर मांगा था कि राज्य भरत को मिले किंतु जब वर सच्चाई में परिवर्तित हुआ, तब राम का वनवास हुआ और भरत ने राज्य का स्वामी नहीं किंतु राम का सेवक बनकर रहने की बात की तब कैकेयी ने पश्चाताप से भरकर अपने आप को धिक्कारा और राम को पुनः अयोध्या में लाने के लिए भरत के संग वन में जाकर राम से बार बार अयोध्या लौटने का आग्रह किया। वह जिन धर्म की श्रद्धालु श्रमणोपासिका थी, जिसने संसार से विरक्त होकर संयम को धारण किया था।१२ २.२३.४२ सुमित्रा२३ :- कमलसंकुल नगर के राजा सुबंधुतिलक एवं महासनी मित्रादेवी की सुपुत्री का नाम सुमित्रा था ।१४ वह अयोध्या नरेश दशरथ की द्वितीय महारानी थी, जिनकी कुक्षी से आठवें वासुदेव लक्ष्मण का जन्म हुआ था। गर्भ में आगमन पर सुमित्रा ने सात शुभ स्वप्न देखे। सुमित्रा परम पतिव्रता, कर्तव्यनिष्ठ, वात्सल्यमयी सन्नारी थी, जिसके मन में श्रीराम के प्रति अपने पुत्र लक्ष्मणवत् ही अपार प्रीति थी। लक्ष्मण द्वारा वनवास में राम का अनुगमन करने पर सुमित्रा ने प्रसन्नतापूर्वक पुत्र को विदा किया तथा सेवा धर्म की सुंदर शिक्षा दी। पुत्रविरह के दुःख को तथा पति के आदेश को उसने समभाव से सहन किया। २.२३.४३ मंदोदरी :- मंदोदरी रावण की पटरानी थी। वह परम सुंदरी, गुणवती तथा जिनशासन में अनुरक्त श्रमणोपासिका थी। उसने रावण को बार बार समझाया कि वह सीता को लौटा दे क्योंकि जिनशासन में पांच बातें वर्जित मानी गई हैं। वे पाँच बातें इस प्रकार हैं, हिंसा, मषावाद, पर द्रव्य हरण (अर्थात् चारों) परिग्रह तथा स्त्री संग ।मंदोदरी ने सीता को रावण के प्रति आसक्त करने का प्रयत्न किया। धमकी भी दी। २१६ किंतु सीता ने अपना पतिव्रत धर्म नहीं छोड़ा। रावण को सीता की आसक्ति को छोड़कर उसे राम के सुपुर्द करने की प्रेरणा मंदोदरी ने दी। मंदोदरी ने संसार से विरक्त होकर दीक्षा धारण की थी। २.२३.४४ गांधारी : गांधारी गांधार नरेश शकुनि की बहन तथा हस्तिनापुर के राजा धतराष्ट्र की पत्नी थी। उसकी अन्य सात बहनें भी धतराष्ट्र से विवाहित थी । २१६ किंतु गांधारी सर्वाधिक प्रिय थी। वह धर्मिष्ठ, समझदार एवं पतिव्रता सन्नारी थी। पति के अंधे होने से, उसने अपनी आंखों पर पट्टी लगाकर रखी थी। जिसके प्रभाव से उसकी आंखों में वह शक्ति पैदा हुई कि उसकी एक दष्टि पड़ने से दुर्योधन का पूरा शरीर इस्पात (वज्र) का हो गया था। दुर्योधन महाबली भीम से स्वयं की रक्षा करने के लिए For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003610
Book TitleJain Shravikao ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages748
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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