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जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास
अभिमत
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अनुसन्धात्री साध्वी प्रतिभाश्री जी 'प्राची' द्वारा जैन विश्व भारती संस्थान, लाडनूं के जैन विद्या और तुलनात्मक धर्म-दर्शन विभाग में पी-एच.डी. की उपाधि हेतु प्रस्तुत "चतुर्विध जैन संघ में श्राविकाओं का योगदान” विषयक शोध प्रबन्ध का अवलोकन करने के अनन्तर मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि शोध प्रबन्ध पी-एच.डी. की उपाधि प्रदान किए जाने के लिए सर्वथा उपयुक्त है।
साध्वी प्रतिभाश्री ने शोधप्रबन्ध के माध्यम से एक महत्त्वपूर्ण कार्य सम्पादित किया है। शोधकार्यों को उन्होंने अध्यायों में प्रस्तुत किया है। प्रागैतिहासिक काल से लेकर आधुनिक काल तक की प्रमुख श्राविकाओं के सम्बन्ध में जानकारी एकत्रित करना एक कठिन कार्य था, जिसे साध्वीजी ने श्रमपूर्वक सम्पन्न किया है। अपने कार्य को पूर्ण करने हेतु उन्होंने आगम-साहित्य, आगमिक व्याख्या-साहित्य, चरित एवं कथा काव्यों, पुराण, वाङमय, प्रबन्ध साहित्य, ऐतिहासिक ग्रन्थों, शिलालेखों, ग्रन्थ प्रशस्तियों एवं पुरातात्विक साक्ष्यों को आधार बनाया है। कहीं अनुश्रुति को भी स्थान दिया है।
शोध प्रबन्ध का प्रथम अध्याय विस्तृत है, जिसमें वैदिक काल से पौराणिककाल तक भारतीय नारियों की संक्षिप्त चर्चा करने के अनन्तर बौद्ध धर्म एवं जैन धर्म में नारी के महत्व का प्रतिपादन किया गया है। इसी अध्याय में श्राविका के आचार एवं बारह व्रतों का संक्षेप में निरूपण करने के साथ उन स्त्रोतों का भी उल्लेख किया गया है जिनके आधार पर शोधकार्य सम्पन्न किया गया। यह अध्याय भारतीय परम्परा में संक्षेप में नारी का चित्रण करने के साथ-साथ जैन परम्परा में श्राविका के रूप में उसके स्वरूप का भी निर्धारण करता है। इस अध्याय का चित्रखण्ड अभिलेखीय एवं स्थापत्य साक्ष्यों का भण्डार है जिसमें पृष्ठ ५० से पृष्ठ १०८ तक अनेक चित्र संयोजित हैं, जिनमें खारवेल की रानी सिंघुला के योगदान से लेकर, कंकाली टीला मथुरा, देवगढ़ की कला, मन्दिरों के स्तम्भों पर श्राविकाओं के चित्र दिए गए हैं। ई. सन् १०वीं शती की जैन श्राविका गुलिकायज्जिका का चित्र मैसूर से प्राप्त हुआ है। ताड़पत्र पर चित्रित श्राविकाओं तथा श्राविकाओं द्वारा निर्मित पट्टिकाओं के चित्र दिए गए हैं। मुगलकालीन कला पर जैन श्राविकाओं के प्रभाव को प्रदर्शित किया गया है। चित्र खण्ड से यह अध्याय एवं शोध प्रभावी बन गया है।
तृतीय अध्याय में प्रथम तीर्थकर श्री ऋषभदेव जी से लेकर बाईसवें तीर्थकर श्री अरिष्टनेमि जी के काल में हुई। श्राविकाओं की संख्या एवं प्रमुख श्राविकाओं का परिचय दिया गया है। अनुसन्धात्री अपने कार्य में प्रामाणिक स्त्रोतों एवं अनुश्रुतियों में अन्तर करते समय सावधान है। इस अध्याय में विभिन्न स्त्रोतों से २२ तीर्थंकरों के काल की ३२८ श्राविकाओं का परिचय निबद्ध किया गया है, जो महत्त्वपूर्ण है।
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