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________________ पूर्व पीठिका गुणों के आधार पर नारी के अन्यान्य अनेक नाम और भी हैं और नित नये नामों का प्रयोग भी असंभव नहीं है। संसति प्रसार में भी नारी का योगदान महत्वपूर्ण है। मातत्व के वरदान स्वरूप वही प्रजोत्पत्ति करती है। पुरूष नारी के प्रति रूपासक्त हो कर कामेच्छा करता है। नारी और नर की पारस्परिक मिलनेच्छा स्वाभाविक होती है। इस इच्छा का उद्दाम और अनियमित स्वरूप असामाजिकता और अशिष्टता को जन्म देता है। विवाह संस्कार वासना को नियमित कर उसे सुष्टु स्वरूप प्रदान कर देता है। परिवार में नारी सर्वप्रथम कन्या या पुत्री रूप में जन्म लेती है। वात्सल्यमयी वातावरण में पल्लवित होती हुई, परिणय योग्य होने पर, दाम्पत्य सूत्र में बंधकर, धर्मपत्नी और गहिणी का स्वरूप ग्रहण करती है। वही कालान्तर में ममतामयी माता का गौरव पूर्ण पद प्राप्त करती है। सामाजिक व धार्मिक आदि नाना क्षेत्रों में सक्रिय रहती है। समाज में उसे गौरव और प्रतिष्ठा मिलती है तथा परिवार में मान सम्मान। किन्तु नारी की सामाजिक स्थिति युगानुयुग परिवर्तनशील रही है। कभी उसे गरिमा-महिमा का पात्र माना गया है तो किसी युग में उसकी उपेक्षा और अवमानना भी कम नहीं हुई। साहित्य समाज का दर्पण है। साहित्य में तत्कालीन युग की सामाजिक स्थिति झलकती है। समाज की दष्टि में नारी जाति किस काल में क्या स्थान रखती थी, यह साहित्य के अन्यान्य प्रकरणों से स्पष्ट हो जाता है। आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि जी ने "भारतीय वाड्म्य में नारी " पुस्तक में नारी की सामाजिक स्थिति को स्पष्ट करने के लिए नारी के विकास के इस दीर्घ क्रम को वैदिक काल से प्रारम्भ कर निम्नलिखित युगों में विभक्त किया है: (१) वैदिककाल (२) महाकाव्यकाल (३) उपनिषद्काल (४) जैनकाल (५) बौद्ध काल (६) संस्कृत युग (७) अपभ्रंश युग (८) मुस्लिम युग (६) आधुनिक युग भारतीय संस्कति में नारी को अति सम्माननीय माना जाता है। वैदिक युग की मान्यता थी कि स्त्री, स्वदेह तथा संतति से पुरुष को परिपूर्णता प्रदान करती है। यज्ञादिधर्म क्रियाओं में पुरुष के साथ नारी की सहभागिता अनिवार्य है। नारी को पुरुष की अर्धांगिनी के रूप में स्वीकार करने का मूल विचार वैदिक युग में ही अस्तित्व में आया। इस युग की स्त्री अधिकार संपन्ना थी, तथा अपने अधिकारों को क्रियान्वित करने में भी पीछे नहीं थी और विद्वत्ता में भी पीछे नहीं थीं। अपाला, घोषा, लोपा, मुद्रा आदि अनेक विदुषी महिलाएं प्रसिद्ध थी, जिनके कंठ में ऋचाओं का निवास था। इला, माही, भारती, आदि का तो ऋग्वेद में परम ज्ञानवती महिलाओं के रूप में उल्लेख किया गया है। पुरुष के आदि गुरु के रूप में नारी को सम्मान मिला है। वेदों के पश्चात् स्मतियां रची गई, किन्तु इन दोनों के मध्य उपनिषद्काल रहा है। उपनिषद्काल में अनेक स्त्रियां परम मेधावी एवं चिन्तनशीला थीं। ज्ञान प्राप्ति की उत्कट अभिलाषा और सक्रिय चेष्टा भी उनमें रही थी। वह स्वचेतनाधीन रहती थी और अपने उत्थान का मार्ग चयन करने में वह सर्वथा स्वतंत्र थी। पति का वर्चस्व भी उसके मार्ग में व्यवधान नहीं बनता। राजा जनक की राजसभा में युग के शिखरस्थ ज्ञान संपन्न ऋषि याज्ञवल्क्य के साथ विदुषी गार्गी का प्रखर शास्त्रार्थ एक अति महत्त्वपूर्ण प्रसंग है। उपनिषदकाल में पुरुषों को बहुविवाह का अधिकार था । फलस्वरूप नारी के वर्चस्व में मंदी आने लगी। यह प्रथा उत्तरोत्तर प्रबल होती गई। रामायण काल में पुरुष अनेकानेक विवाह करने लगा, जैसे राजा दशरथ चार रानियों के स्वामी थे। इस अधिकार हास की स्थिति में भी उपनिषद्काल की नारी का वर्चस्व परवर्तीकालीन नारी की अपेक्षा अधिक ऊर्जस्वी रहा, इसमें कोई संदेह नहीं। उत्तरवैदिककाल में भी नारी-सम्मान तथा उसके प्रति उच्च भावना यत्किंचित् रूप में प्रबल रही। शिक्षा प्राप्ति की स्वाधीनता उसे मिलती रही और स्वयं को विदुषी रूप देने में वह सचेष्ट रहा करती थी। ब्रह्मवादिनी वर्ग की स्त्रियां तो आजीवन शैक्षिक विकास में ही लगी रहती थी। बाद में चलकर धर्म के क्षेत्र में आडम्बर के बढ़ने से निम्नवर्गीय स्त्रियाँ वैदिक कर्मकाण्ड की प्रतिभागिता से वंचित रहने लगी। सूत्रों व स्मतियों के काल में नारी अनेक प्रतिबंधों एवं बाधाओं से घिर गई। उसकी स्वाधीनता के स्थान पर उसकी मर्यादा अधिक महत्व पाने लगी। इसी क्रम में जैन और बौद्ध परंपराओं का विकास भी आ जाता है। बौद्ध परंपरा में तो नारी के धर्मक्षेत्र में प्रवेश से. संघ-प्रवेश से संघ की आय में ही हास की आशंका का अनुभव किया जाता था। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003610
Book TitleJain Shravikao ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages748
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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