SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 33
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन श्राविकाओं का बृहद् इतिहास इसके विपरीत जैन परम्परा बड़ी उदार और विशाल हृदयता की परिचायक रही। भगवान महावीर स्वामी ने स्त्री और पुरूष में किसी प्रकार के भेदभाव को स्वीकार नहीं किया। महावीरकाल में नारी को पुरुष की परम सहचरी होने का गौरव पुनः प्राप्त हुआ। बहत् कल्पभाष्य के अनुसार भी संकट की अवस्था में नारी को प्रथम संरक्षणीय माना गया। नारी को पुरूष के समान ही मुक्ति की अधिकारिणी मानकर नारी सत्ता को सर्वोच्च सम्मान प्रदान किया गया। नारी की स्थिति और उसकी विकास यात्रा की यह झलक मात्र है। उसके व्यक्तित्व में अनेक अंधियारे-उजियारे पक्ष आते जाते रहे हैं। वैदिक काल से आरंभ हुई नारी की स्वरूपगत विकास यात्रा का विवेचन क्रमिक ओर सुविस्तत रूप में हम आगे प्रस्तुत कर रहे हैं। १.१.१वैदिक कालीन भारतीय नारियां : वैदिक काल से लेकर ईस्वी सन् के प्रारम्भ तक कन्या का वेदाध्ययन भी उपनयन संस्कार से प्रारम्भ होता था। सूत्र युग में भी स्त्रियां वेदों का अध्ययन करती थीं तथा मंत्रोच्चार भी करती थी। न केवल वे मन्त्रोच्चारण करती थी अपितु वैदिक ऋचाओं की दष्टा भी होती थी। उस काल में विवाह के योग्य बनने के लिए भी अध्ययन की अनिवार्यता थी, त कन्या को ब्रह्मचर्य जीवन में समुचित रूप से प्रतिष्ठित किया करते थे। अध्ययनरत छात्राओं की दो श्रेणियां थी। प्रथम श्रेणी की छात्रायें "ब्रह्मवादिनी" कहलाती थीं, जो आजीवन अध्यात्म तथा दर्शनशास्त्र की छात्रा रहती थी। द्वितीय श्रेणी की छात्राएं "सद्योवधू" कहलाती थीं और विवाह के पूर्व तक ये अपना अध्ययन जारी रखती थीं। कन्याओं के लिए वेदाध्ययन आवश्यक था क्योंकि स्त्रियों को नियमित रूप से प्रातः संध्या वैदिक प्रार्थनायें करनी पड़ती थीं और पत्नियां यज्ञादि में अपने पति के साथ मंत्रोच्चारण करती थीं। रामायण में विवरण है कि सीता नियमित रूप से संध्या पाठ करती थीं, जिसे डॉ० अलतेकर ने (Position of Women, प. ११ में) वैदिक मंत्रों का पाठ माना है। जब तक समाज में वेदों एवं दर्शन ग्रंथों के अध्ययन का विशेष महत्त्व रहा, उसमें स्त्रियां पुरुषों के समान भाग लेती रहीं। मीमांसा जैसे गूढ़ विषय में भी स्त्रियां रूचि लेती थीं। इसका प्रमाण "काशकत्सनी" नामक ग्रंथ है जिसकी रचना "काशकत्स्न" नामक ब्रह्मवादिनी ने की थी। जो स्त्रियां विशेष ज्ञानी होती थी उन्हें "काशकत्स्ना" कहा जाता था। दूसरा उदाहरण उच्च कोटि की दार्शनिक महिला गार्गी का है जिसने दर्शनशास्त्र पर ऋषि 'याज्ञवल्क्य' से अनेक प्रश्न किये थे। ऋषि 'याज्ञवल्क्य' की दूसरी पत्नी 'मैत्रेयी' भी वेदांत की गंभीर अध्येता थीं। ___महाभारत के अनुसार पांडवों की माता कुन्ती अथर्ववेद में निष्णात थी। प्राचीन भारत में स्त्रियों का विदुषी होना कोई आश्चर्य की बात नहीं थी। ___अध्ययन के पश्चात् कुछ स्त्रियां अध्यापन का कार्य भी करती थीं। उपनिषदों में स्त्री शिक्षिकाओं के वर्णन हैं किन्तु है विवाहित थीं अथवा अविवाहित यह स्पष्ट नहीं है। शिक्षिकाओं को "उपाध्याया" कहा जाता था। फिर भी स्त्री शिक्षिकाओं की संख्य अधिक नहीं थी। ततीय शताब्दी ईसा पूर्व तक सामान्यतया परिवार में ही बालिकाओं को शिक्षा दी जाती थी, तथा उनका तत्संबंधी उपनय संस्कार भी होता था। ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य कन्याओं को वैदिक एवं साहित्यिक शिक्षा भी दी जाती थी, किन्तु कालान्तर, स्थिति में परिवर्तन हुआ तथा बाल विवाह जैसी कुप्रथा के प्रचलन के कारण बालिकाओं की शिक्षा पर आघात किया गया। ईरथी शती के प्रारम्भ तक बालिकाओं का उपनयन संस्कार केवल प्रतीकात्मक रह गया और अंत में उसे समाप्त कर दिया गया वेदकाल मे नारी बड़ी उन्नत और उत्तम स्थिति में रही है। सम्मान, समकक्षता, अधिकारवत्ता और गौरव गरिमा की दटे से नारी के लिए यह काल स्वर्णिम युग था। राजसभा के अनेक रत्नों मे "महिषी रत्न" या स्त्री रत्न (इत्थीरयण) राजा के साथ राजसिंहासन पर आसीन होकर शासन कार्य में महत्वपूर्ण सहयोग देती थी। नारी रण प्रसंग मे पति के रथ की सारथी बनकर सक्रियतापूर्वक युद्ध में भाग भी लेती थी। एक प्रतिघात मे 'विश्चला' का पैर टूट गया था और अश्विनीकुमारों ने उसकी चिकित्सा की थी। नमुचि ने तो महिलाओं का एक पूरा सैन्य ही संगठित कर लिया था। Jain Education International For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.003610
Book TitleJain Shravikao ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages748
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy